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१६६ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[हिदिविहत्ती ३ ___ २७८. सण्णिमिच्छाइट्ठिणा तप्पाओग्गअंतोकोडाकोडिट्ठिदिसंतादो संकिलेसं पूरेदण संखेजगुणवड्डीए एगसमयं वडिदण बंधिय विदियसमए अवविदबंधे अप्पदरबंधे वा कदे संखेजगुणवड्डीए एगसमओ लब्भदि, सत्थाणे वे समया ण लब्भंति चेव; अंतोमुहुचतरं मोत्तण संखेजगुणवड्डिपाओग्गपरिणामाणं णिरंतरं दोसु समएसु गमणाभावादो। तेणेत्थ वि परत्थाणं चेव अस्सिदूण विसमयाणं परूवणा कायव्वा । तं जहा-एइंदिओ कालं काढूण एगविग्गहेण सण्णिपंचिंदिएसु उववण्णो तस्स पढमसमए संखेजगुणवड्डी होदि; तत्थासण्णिपंचिंदियट्ठिदिबंधस्स संभवादो। विदियसमए सरीरं घेत्तूण संखेजगुणवहिं करेदि; तत्थ अंतोकोडाकोडिसागरोवम'मेत्तहिदिबंधुवलंभादो।
* असंखेज्जभागहाणीए जहरणेण एगसमयो ।
६ २७९. तं जहा-समद्विदि बंधमाणेण पुणो संतकम्मस्स हेट्ठा एगसमयमोसरिदण बंधिय तदो उवरिमसमए संतसमाणे पबद्धे असंखेजभागहाणीए जहण्णेण एगसमओ होदि। ___ * उक्कस्सेण तेवहिसागरोवमसद सादिरेयं ।।
२८०. तं जहा-एगो वड्डीए अवट्ठाणे वा अच्छिदो पुणो सव्वुक्कस्समंतोमुहत्तकालमप्पदरविहत्तिओ होदूणच्छिय वेदगसम्मत्तं पडिवण्णो। पुणो वेछावहिसागरोवमाणि भमिय तदो एक्कत्तीससागरोवमिएसु उपजिय मिच्छत्तं गंतूण देवाउअमणुपालिय कालं
६२७८. किसी संज्ञी मिथ्यादृष्टिने तद्योग्य अन्तःकोड़ाकोड़ी सागरप्रमाण स्थितिसत्त्वसे संक्लेशको पूराकर एक समयतक संख्यातगुणवृद्धिरूपसे स्थितिको बढ़ाकर बन्ध किया पुनः दुसरे समयमें अवस्थितबन्ध या अल्पतरबन्धके करने पर संख्यातगुणवृद्धिका एक समय प्राप्त होता है। स्वस्थानमें दो समय प्राप्त होते ही नहीं, क्योंकि अन्तर्मुहूर्त अन्तरके बिना निरन्तर दो समय तक संख्यातगुणवृद्धिके योग्य परिणामोंकी प्राप्ति नहीं होती है, अतः यहाँ पर भी परस्थानकी अपेक्षासे ही दो समयोंका कथन करना चाहिये। जो इस प्रकार है-एक एकेन्द्रिय मरकर एक विग्रहसे संजी पंचेन्द्रियों में उत्पन्न हश्रा उसके प्रथम समयमें संख्यातगणवृद्धि होती है। क्योंकि वहाँ पर असंज्ञी पंचेन्द्रियका स्थितिबन्ध सम्भव है। तथा दूसरे समयमें शरीरको ग्रहण करके संख्यातगुणवृद्धिको करता है; क्योंकि वहाँ पर अन्तःकोड़ाकोड़ी सागर प्रमाण स्थितिबन्ध पाया जाता है।
* मिथ्यात्वकी असंख्यातभागहानिका जघन्य काल ऐक समय है।
६२७६. जो इस प्रकार है-समान स्थितिको बाँधनेवाले किसी जीवने सत्कर्मसे एक समय कम बन्ध किया तदनन्तर अगले समयमें सत्कर्मके समान बन्ध किया तो उसके असंख्यातभागहानिका जघन्य काल एक समय होता है।
* उत्कृष्ट काल साधिक एक सौ त्रेसठ सागर है।
२८०. जो इस प्रकार है-कोई एक जीव वृद्धि या अवस्थानमें स्थित है पुनः वह सबसे उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त काल तक अल्पतर विभक्तिवाला होकर रहा और वेदकसम्यक्त्वको प्राप्त हुआ। पुनः एक सौ बत्तीस सागर तक परिभ्रमण करके तदनन्तर इकतीस सागरप्रमाण आयुवाले देवोंमें उत्पन्न होकर और मिथ्यात्वको प्राप्त होकर उसके साथ देवायुका उपभोग करके मरा और पूर्व
. ता. प्रतौ कोडाकोडि ति सागरोबम इति पाठः ।
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