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________________ गा० २२] वडिपरूपणाए कालो १६५ बीइंदियढिदिसंतादो तीइंदिएसुप्पण्णपढमट्ठिदिसंतस्स देसूणदुगुणत्तुवलंभादो। बेइंदियअपज्जत्तयस्स उक्कस्सट्ठिदिबंधादो तेइंदियअपज्जत्तयस्स उक्कस्सहिदिबंधो दुगुणो होदि तस्स जहण्णढिदिबंधादो वि एदस्स जहण्णाद्विदिबंधो दुगुणो होदि । तेण कारणेण बीइंदियउकस्सट्ठिदिबंधं पेक्खिदण तीइंदियअपज्जत्तयस्स जहण्ण ट्ठिदिबंधो संखेज्जभाग. महिओ। बीइंदियअपज्जत्तयस्स जहण्णढिदिसंतादो पलिदो० संखेज्जभागब्भहिय. सगुक्कस्सहिदिसंतं पेक्खिद्ण बीइंदियअपज्जत्तजहण्णहिदिसंतादो संखे०पलिदोवमेहि अन्भहियतेइंदियजहण्णहिदिबंधो संखेज्जभागब्भहिओ त्ति भणिदं होदि । बेइंदिएसु सत्थाणे चेव संखेज्जभागवड्डीए बेसमया किण्ण लब्भंति ? ण एस दोसो, अद्धाक्खएण असंखेज्जभागवड्डिबंधं मोत्तण सेसवड्ढिबंधाणमभावादो। संकिलेसक्खएण संखेज्जभागवड्डीए सत्थाणे चेव वेसमया किण्ण लभंति ? ण, एगसमए संकिलेसक्खए जादे पुणो अंतोमुहुत्तेण विणा संखेज्जभागवड्बिंधपाओग्गसंकिलेसाणं गमणासंभवादो। ६२७७, अधवा तेइंदिएण सत्थाणे चेव संकिलेसक्खएण एगसमयं कदसंखेजभागवड्डिडिदिबंधेण विदियसमए कालं कादण चउरिदिएसुप्पांजय पढमसमए जहण्णहिदिबंधे पबद्ध संखेजभागवड्डीए वे समया लब्भंति । महाबंधम्मि विगलिंदिएसु सत्थाणे चेव संकिलेसक्खरण संखेजभागवडिबंधस्स वे समया परूविदा, तब्बलेण कसायपाहुडस्स ण पडिवोहणा काउं जुत्ता; तंतंतरेण भिण्णपुरिसकरण तंतंतरस्स पडिबोयणाणुववत्तीदो। समय प्राप्त होता है; क्योंकि द्वीन्द्रियके स्थितिसत्त्वसे त्रीन्द्रियोंमें उत्पन्न होने पर जो प्रथम स्थितिसत्त्व होता है वह कुछ कम दूना पाया जाता है। द्वीन्द्रिय अपर्याप्तकके उत्कृष्ट स्थितिबन्धसे त्रीन्द्रिय अपर्याप्तकके उत्कृष्ट स्थितिबन्ध दूना होता है। तथा उसके जघन्य स्थितिबन्धसे भी. इसके जघन्य स्थितिबन्ध दूना होता है इसलिये द्वीन्द्रियके उत्कृष्ट स्थितिबन्धकी अपेक्षा त्रीन्द्रिय अपर्याप्तकके जघन्य स्थितिबन्ध संख्यातवें भाग अधिक होता है। द्वीन्द्रिय अपर्याप्तकके जघन्य स्थितिसत्त्वसे पल्योपमके संख्यातवें भाग अधिक अपने उत्कृष्ट स्थितिसत्त्वकी अपेक्षा द्वीन्द्रिय अपर्याप्तकके जघन्य स्थितिसत्त्वसे संख्यात पल्य अधिक त्रीन्द्रियका जघन्य स्थितिबन्ध संख्यातवें भाग अधिक होता है यह उक्त कथनका तात्पर्य है। शंका-द्वीन्द्रियोंमें स्वस्थानमें ही संख्यातभागवृद्धिके दो समय क्यों नहीं प्राप्त होते हैं ? समाधान-यह कोई दोष नहीं है,क्योंकि अद्धाक्षयसे असंख्यातभागवृद्धि रूपबन्धको छोड़कर शेष वृद्धिरूप बन्धोंका अभाव है। शंका-संक्लेशक्षयसे स्वस्थानमें ही संख्यातभागवृद्धिके दो समय क्यों नहीं प्राप्त होते हैं ? समाधान-नहीं, क्योंकि एक समयमें संक्लेशक्षय हो जाने पर पुनः अन्तर्मुहूर्त कालके बिना संख्यातभागवृद्धिरूप बन्धके योग्य संक्लेशकी प्राप्ति होना सम्भव नहीं है। .... ६२७७. अथवा जिस त्रीन्द्रियने स्वस्थानमें ही संक्लेशक्षयसे एक समयतक संख्यातभागवृद्धिरूप स्थितिबन्धको किया है उसके दूसरे समयमें मरकर और चतुरिन्द्रियों में उत्पन्न होकर प्रथम समयमें जघन्य स्थितिबन्धके करने पर संख्यातभागवृद्धिके दो समय प्राप्त होते हैं। महाबन्धमें विकलेन्द्रियोंमें स्वस्थानमें ही संक्लेशक्षयसे संख्यातभागवृद्धिरूप बन्धके दो समय कहे हैं। उसके . बलसे कषायपाहुडको समझना ठीक नहीं है क्योंकि भिन्न पुरुषके द्वारा किये गये ग्रन्थान्तरसे ग्रन्थान्तरका शान नहीं हो सकता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001410
Book TitleKasaypahudam Part 04
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1956
Total Pages376
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size10 MB
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