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________________ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [हिदिविहत्ती ३ ___ * एगजीवेण कालो। $ २७४. एगजीवसंबंधिकालो चुचदि त्ति भणिदं होदि । * मिच्छत्तस्स तिविहाए वड्डीए जहरणेण एगसमओ। ६ २७५. तं जहा-अद्धाक्खएण संकिलेसक्खएण वा अप्पणो संतकम्मस्सुवरि एगसमयं वड्डिदण बंधिय विदियसमए अप्पदरे अवट्ठाणे वा कदे असंखेज्जभागवड्डि. संखेज्जभागवड्डि-संखेज्जगुणवड्डीणं कालो' जहण्णेण एगसमओ होदि । . * उक्कस्सेण बे समया । ६ २७६. तं जहा-एइंदिओ एगहिदि बंधमाणो अच्छिदो, तदो तिस्से विदोए अद्धाक्खएण एगसमयमसंखेज्जभागवबिंधं कादण पुणो विदियसमए संकिलेसक्खएण असंखेज्जभागवड्डिबंधं कादूण तदियसमए अप्पदरे अवडिदे वा कदे असंखेज्जभागवड्डीए उक्कस्सेण वे समया लद्धा होति । जधा एइंदियमस्सिदूण अद्धासंकिलेसक्खएण असंखेज्जभागवड्डीए विसमयपरूवणा कदा तधा बेइंदिय-तेइंदिय-चदुरिंदिय-असण्णिपंचिंदिय-सण्णिपंचिंदिए वि अस्सिदृण सत्थाणे चेव वेसमयपरूवणा कायब्बा; अद्धाक्खएणेव संकिलेसक्खएण वि असंखेज्जभागवड्डीए संभवादो। वेइंदिओ संकिलेसक्खएण एगसमयं संखेज्जभागवड्डिबंधं कादण पुणो अणंतरसमए कालं कादण तेइंदिएसुप्पज्जिय पढमसमए तप्पाओग्गजहण्णहिदिबंधओ जादो। ताधे संखेज्जभागवड्डीए विदिओ समओ लब्भदि; * अब एक जीवकी अपेक्षा कालका कथन करते हैं। २७४. अब एक जीवसम्बन्धी कालका कथन करते है यह इस सूत्रके कहनेका तात्पर्य है। * मिथ्यात्वकी तीन वृद्धियोंका जघन्य काल एक समय है। ६२७५. जो इस प्रकार है-जिसने अद्धाक्षय या संक्लेशक्षयसे अपने सत्कर्मके ऊपर एक समय तक स्थितिको बढ़ाकर बाँधा और दूसरे समयमें अल्पतर या अवस्थान किया उसके असंख्यातभागवृद्धि, संख्यातभागवृद्धि और संख्यातगुणवृद्धिका जघन्य काल एक समय होता है। * उत्कृष्ट काल दो समय है। ६२७६. जो इस प्रकार है-जो एकेन्द्रिय एक स्थितिको बाँधता हुआ विद्यमान है तदनन्तर जिसने उस स्थितिका अद्धाक्षयसे एक समय तक असंख्यातभागवृद्धिरूप बन्ध किया पुन: दूसरे समयमें संक्लेशक्षयसे असंख्यातभागवृद्धिरूप बन्ध करके तीसरे समयमें अल्पतर या अवस्थित बन्ध किया उसके असंख्यातभागवृद्धिका उत्कृष्ट काल दो समय प्राप्त होता है। जिस प्रकार एकेन्द्रियकी अपेक्षा अद्धाक्षय और संक्लेशक्षयसे असंख्यातभागवृद्धिके दो समयोंका कथन किया उसी प्रकार द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, असंज्ञी पंचेन्द्रिय और संज्ञी पंचेन्द्रियकी अपेक्षा भी स्वस्थानमें ही दो समयोंका कथन करना चाहिये, क्योंकि वहाँ पर अद्धाक्षयके समान संक्लेशक्षयसे भी असंख्यातभागवृद्धि सम्भव है। कोई द्वीन्द्रिय संक्लेशक्षयसे एक समय तक संख्यातभागवृद्धि रूप बन्ध करके पुनः अनन्तर समयमें मरकर त्रीन्द्रियोंमें उत्पन्न होकर प्रथम समयमें तस्प्रायोग्य जघन्य स्थितिका बन्ध करनेवाला हो गया। उस समय संख्यातभागवृद्धिका दूसरा . भा. प्रतौ काले इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001410
Book TitleKasaypahudam Part 04
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1956
Total Pages376
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size10 MB
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