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________________ गा० २२] वड्डपरूवणाए फोसणं २३६ ० ६ ३८२. बादरपुढविपञ्ज • अट्ठावीसं पयडीणं सगपदवि० लोग० असंखे० भागो सव्वलोगो वा । णवरि इत्थि - पुरिस० असंखे ० भागवड्डि-अवट्ठि० लोग० असंखे० भागो । एवं वादरआउ० उ० - वाउ०- बादरवणप्फदिपत्तेयपञ्जत्ताणं । णवरि बादरवाउ० पञ्ज० लोग० संखे० भागो' सव्वलोगो वा । इत्थि पुरिस० असंखे ० भागवड्डि-अवट्ठिद विह० लोग० संखे० भागो' । इसलिए इनकी अपेक्षा स्पर्शन कुछकम आठबटे चौदह राजुप्रमाण कहा है। स्त्रीवेद और पुरुषवेद की तीन वृद्धियाँ और अवस्थितपद स्वस्थानके समय, विहारादिके समय तथा देवों और नारकियों के तिर्यों और मनुष्यो में मारणान्तिक समुद्घातके समय भी सम्भव हैं, इसलिए इन प्रकृतियों के उक्त पदोंकी अपेक्षा स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण, कुछ कम आठ बटे चौदह राजुप्रमाण और कुछ कम बारह बटे चौदह राजुप्रमाण कहा है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी चारवृद्धियाँ, अवस्थित और अवक्तव्यपद स्वस्थानमें और विहारादिके समय ही सम्भव हैं, इसलिए इन दो प्रकृतियोंके उक्त पदोंकी अपेक्षा स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण और कुछ कम आठ बटे चौदह राजुप्रमाण कहा है। इन दो प्रकृतियोंकी चार हानियोंका स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण, कुछ कम आठ वटे चौदह राजुप्रमाण और सब लोकप्रमाण है यह स्पष्ट ही है, क्योंकि ये चारों हानियाँ उद्वेलना में भी सम्भव होनेसे उक्तप्रमाण स्पर्शन बन जाता है । यहाँ त्रस आदि अन्य जितनी मार्गणाऐं गिनाई हैं उनमें यह व्यवस्था बन जाती है, इसलिए उनके कथनको पंचेन्द्रियद्विकके समान कहा है । ९ ३८२ बादर पृथिवीकायिक पर्याप्तकों में अट्ठाईस प्रकृतियोंके सब पद स्थितिविभक्तिवाले जीवोंने लोकके असंख्यातवें भाग और सब लोक क्षेत्रका स्पर्शन किया है । किन्तु इतनी विशेषता है कि स्त्रीवेद और पुरुषवेदकी असंख्यातभागवृद्धि और अवस्थितका स्पर्शन लोकका असंख्यातवाँ भाग है। इसी प्रकार बादर जलकायिक पर्याप्त, बादर अग्निकायिक पर्याप्त, बादर वायुकायिक पर्याप्त और बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येकशरीर पर्याप्त जीवोंके जानना चाहिए । किन्तु इतनी विशेषता है कि बादर वायुकायिक पर्याप्त जीवोंने लोकका संख्यातवाँ भाग और सब लोकका स्पर्शन किया है तथा स्त्रीवेद और पुरुषवेदकी असंख्यात भागवृद्धि और अवस्थितस्थितिविभक्तिवालोंने लोकके संख्यातवें भाग क्षेत्रका स्पर्शन किया है । विशेषार्थ - बादर पृथिवीकायिक पर्याप्त जीवोंका स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण और सब लोकप्रमाण है । अतः यहाँ अट्ठाईस प्रकृतियोंके जो पद सम्भव हैं उनका यह स्पर्शन बन जाता है, इसलिए वह उक्तप्रमाण कहा है। मात्र स्त्रीवेद और पुरुषवेदकी असंख्यात भागवृद्धि और अवस्थितपद इसके अपवाद हैं। बात यह है कि जो उक्त जीव नपुंसकोंमें मारणान्तिक समुद्धात करते हैं उनके ये पद नहीं होते, इसलिए इन दो प्रकृतियोंके उक्त दो पदोंकी अपेक्षा स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण कहा है। यहाँ अन्य जितनी मार्गणाऐं गिनाई हैं उनमें यह व्यवस्था बन जाती है इसलिए उनमें बादर पृथिवीकायिक पर्याप्त जीवोंके समान स्पर्शन कहा है । मात्र बाद वायुकायिक पर्याप्त जीवोंका स्पर्शन लोकके संख्यातवें भागप्रमाण और सब लोकप्रमाण होनेसे इनमें सब प्रकृतियोंके सम्भव पदोंकी अपेक्षा यह स्पर्शन जानना चाहिए । किन्तु स्त्रीवेद और पुरुषवेदकी असंख्यात भागवृद्धि और अवस्थितपदकी अपेक्षा यह स्पर्शन लोकके संख्यातवें भागप्रमाण ही जानना चाहिए। कारण स्पष्ट ही है । १ ता० प्रतौ असंखे० भागो इति पाठः । २ ता० प्रतौ असंखे० भागो इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001410
Book TitleKasaypahudam Part 04
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1956
Total Pages376
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size10 MB
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