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________________ २४० जयधवलासहिदे कसायपाहुडे । द्विदिविहत्ती ३ . ६३८३, ओरालियमिस्स० छब्बीसं पयडीणं असंख०भागवड्डि-हाणि-अवढि० के० १ सबलोगो। दोवडि-दोहाणि० केव० १ लोग० असंखे०भागो सव्वलोगो वा। इत्थि-पुरिस० दोवड्ढि० लो० असंखे०भागो। सम्मत्त-सम्मामि० चदुण्डं हाणीणमोघं । $३८”. वेउव्विय० छब्बीसं पयडीणं असंखे० भागवड्डि-हाणि०-दोवड्डि-दोहाणिअवढि० लो० असंखेजदिमागो अदु-तेरहचोद्द० भागा वा देखूणा । णवरि इत्थि-पुरिस० तिण्णिवड्डि-अवढि० लोग० असंखे०भागो अट्ठ-बारहचोद्द० देसूणा । अणंताणु० चउक्क० असंखे०गुणहाणि०-अवत्तव्व० सम्मत्त-सम्मामि० चत्तारिवड्डि-अवट्टि० अवत्तव्वं च अट्ठचोदस० देसूणा। सम्मत्त-सम्मामि० सेसपदाणं लोग. असं०भागो अट्ठ-तेरह० देसूणा। वेउव्वियमिस्स० अट्ठावीसं पयडीणं सवपदवि० लोग० असंखे०भागो। ६३८३ औदारिकमिश्रकाययोगियोंमें छब्बीस प्रकृतियोंकी असंख्यातभागवृद्धि, असंख्यात भागहानि और अवस्थितस्थितिविभक्तिवाले जीवोंने कितने क्षेत्रका स्पर्शन किया है ? सब लोकका स्पर्शन किया है। दो वृद्धि और दो हानिवाले जीवोंने कितने क्षेत्रका स्पर्शन किया है ? लोकके असंख्यातवें भाग और सब लोक क्षेत्रका स्पर्शन किया है। पर स्त्रीवेद और परुषवेद की दो वृद्धियोंका स्पर्शन लोकका असंख्यातवाँ भाग है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी चार हानियोंका स्पर्शन ओघके समान है। विशेषार्थ --- औदारिकमिश्रयोगी जीव सब लोकमें पाये जाते हैं, इसलिए इनमें छब्बीस प्रकृतियोंकी असंख्यातभागवृद्धि, असंख्यातभागहानि और अवस्थितपदका स्पर्शन सब लोकप्रमाण कहा है। इनमें दो वृद्धि और दो हानियोंका वर्तमान स्पर्शन तो लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण ही है. परन्तु अतीत स्पर्शन सब लोकप्रमाण बन जाता है. इसलिए यह लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण और सब लोकप्रमाण कहा है। मात्र स्त्रीवेद और पुरुषवेदकी दो वृद्धियाँ न तो एकेन्द्रियोंमें सम्भव हैं और न नपुंसकोंमें मारणान्तिक समुद्धात करनेवालोंमें सम्भव हैं. अन्यत्र यथायोग्य होती हैं. अतः इन दो प्रकृतियोंके उक्त पदोंका स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण कहा है। शेष कथन स्पष्ट ही है। $३८४. वैक्रियिककाययोगियोंमें छब्बीस प्रकृतियोंकी असंख्यातभागवृद्धि. असंख्यातभागहानि, दो वृद्धि, दो हानि और अवस्थितस्थितिविभक्तिवाले जीवोंने लोकके असंख्यातवें भाग और त्रस नालीके चौदह भागोंमेंसे कुछ कम आठ और कुछ कम तेरह भाग क्षेत्रका स्पर्शन किया है। किन्तु इतनी विशेषता है कि स्त्रीवेद और पुरुषवेदकी तीन वृद्धि और अवस्थितका स्पर्शन लोकका असंख्यातवाँ भाग और सनालीके चौदह भागोंमेंसे कुछ कम आठ और कुछ कम बारह भाग है । अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी असंख्यातगुणहानि और अवक्तव्यका तथा सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी चार वृद्धि, अवस्थित और अवक्तव्यका स्पर्शन त्रस नालीके चौदह भागोंमेंसे कुछ कम आठ भाग है तथा सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वके शेष पदोंका स्पर्शन लोकका असंख्यातवाँ भाग और त्रस नालीके चौदह भागोंमेंसे कुछ कम आठ और कुछ कम तेरह भाग है। वैक्रियिकमिश्रकाययोगियोंमें अट्ठाईस प्रकृतियोंके सब पद स्थितिविभक्तिवाले जीवोंने लोकके असंख्यातवें भाग क्षेत्रका स्पर्शन किया है। विशेषार्थ-वैक्रियिककायोगियोंमें स्त्रीवेद और पुरुषवेदकी तीन वृद्धियाँ और अवस्थितपद स्वस्थानमें, विहारादिके समय तथा नारकियों और देवोंके तिर्यश्चों और मनुष्योंमें मारणान्तिक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001410
Book TitleKasaypahudam Part 04
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1956
Total Pages376
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size10 MB
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