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________________ गा० २२] वड्डिपरूवणाए पोसणं । २४१ ___ ३८५. कम्मइय० छब्बीसं पयडीणमसंखे०भागवड्डि-हाणि-अवट्ठि. केव० ? सव्वलोगो। दोवड्डि-दोहाणि केव० ? लो० असंखे०भागो सव्वलोगो वा । णवरि इत्थि-पुरिस० दोवड्डि० लोग०असंखे०भागो बारहचोद्दस० देसूणा । सम्मत्त-सम्मामि० ओघं । णवरि पदविसेसो णायव्यो । एवमणाहारीणं । । ___ ३८६. आहार-आहारमिस्स० सव्वपयडीणं सव्वपदवि० लोग० असंखे भागो। एवमवगद०-अकसा०-मणपज०-संजद०-सामाइय-छेदो०-परिहार० सुहुमसांप०-जहाक्खादसंजदे ति। . wwwvirwww.simirmiremeritambarrerime marpariwari.... समुद्घातके समय सम्भव होनेसे इन प्रकृतियोंके उक्त पदोंकी अपेक्षा स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण, कुछ कम आठ बटे चौदह राजुप्रमाण और कुछ कम बारह बटे चौदह राजुप्रमाण कहा है। अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी असंख्यातगुणहानि और अवक्तव्यपद तथा सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी चार वृद्धियाँ, अवस्थित और अवक्तव्यपद मारणान्तिक समुद्घात आदिके समय सम्भव नहीं हैं, इसलिए इनका स्पर्शन कुछ कम आठ बटे चौदह राजुप्रमाण कहा है। सब प्रकृतियोंके शेष पदोंका स्पर्शन वैक्रियिककाययोगके समान ही है। वैक्रियिकमिश्रकाययोगका स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण है, इसलिए इसमें सब प्रकृतियोंके सब पदोंका स्पर्शन उक्त प्रमाण कहा है। ६३८५ कार्मणकाययोगियोंमें छब्बीस प्रकृतियोंकी असंख्यातभागवृद्धि, असंख्यातभागहानि और अवस्थित स्थितिविभक्तिवाले जीवोंने कितने क्षेत्रका स्पर्श किया है ? सब लोक क्षेत्रका स्पर्श किया है। दो वृद्धि और दो हानिवाले जीवोंने कितने क्षेत्रका स्पर्श किया है ? लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण और सब लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्श किया है। किन्तु इतनी विशेषता है कि स्त्रीवेद और पुरुषवेदकी दो वृद्धियोंका स्पर्श लोकका असंख्यातवाँ भागप्रमाण और त्रसनालीके चौदह भागोंमेंसे कुछ कम बारह भागप्रमाण है। तथा सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका स्पर्श ओघके समान है। किन्तु पद विशेष जानना चाहिये । इसी प्रकार अनाहारकोंके जानना चाहिए। विशेषार्थ कार्मणकाययोगका स्पर्शन सब लोकप्रमाण है, इसलिए इसमें छब्बीस प्रकृतियोंकी असंख्यातभागवृद्धि, असंख्यातभागहानि और अवस्थित पदका स्पर्शन उक्तप्रमाण कहा है। इन प्रकृतियोंकी दो वृद्धि और दो हानिमेंसे यथासम्भव द्वीन्द्रियादिक जीवोंके वृद्धियाँ और काण्डकघातके साथ संज्ञियोंके एकेन्द्रियादिकमें उत्पन्न होनेपर हानियाँ होती हैं। ऐसे जीवोंका वर्तमान स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण और अतीत स्पर्शन सब लोकप्रमाण होने से यह उक्तप्रमाण कहा है। मात्र स्त्रीवेद और पुरुषवेदकी दो वृद्धियाँ जो स्त्रीवेदी और पुरुषवेदियोंमें उत्पन्न होते हैं उन्हींके यथासम्भव होती हैं, अतः इनका स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण और कुछ कम बारह बटे चौदह राजुप्रमाण कहा है । शेष कथन स्पष्ट ही है। ६३८६ आहारककाययोगी और आहारकमिश्रकाययोगियोंमें सब प्रकृतियोंके सब पदस्थितिविभक्तिवाले जीवोंने लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्श किया है। इसी प्रकार अपगतवेदी, अकषायी, मनःपर्ययज्ञानी, संयत, सामायिकसंयत, छेदोपस्थापनासंयत, परिहारविशुद्धिसंयत,सूक्ष्मसांपरायिकसंयत और यथाख्यातसंयत जीवोंके जानना चाहिए। ३१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001410
Book TitleKasaypahudam Part 04
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1956
Total Pages376
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size10 MB
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