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________________ ४६ जयधवलासहिदें कसायपाहुडे [हिदिविहत्ती ३ णाणि । अवत्तव्व० ज० अंतोमु०, उक० तिण्णि पलिदो० पुवकोडिपुधत्तेणब्भहियाणि । सम्मत्त-सम्मामि० भुज० ज० अंतोमुहुत्तं, अप्प० ज० एगस०, अवत्तव्व० ज० पलिदो० असंखेभागो । उक० सव्वेसि पि तिण्णि पलिदो० पुवकोडिपुधत्तेणब्भहियाणि । अवढि० ज० अंतोमु०, उक्क. पुवकोडिपुधत्तं । एवं मणुसतिय० । णवरि मिच्छत्तसोलसक०-णवणोकसायाणं जम्हि पुत्व कोडिपुधत्तं तम्हि पुव्यकोडी देसूणा । 5 ८२. पंचिंदियतिरिक्खअपज्ज मिच्छत्त०-सोलसक०-णवणोक. भुज०-अप्प.. अवद्विदाणं जह० एगसमओ, उक्क० अंतोमु०। सम्मत्त-सम्मामि० अप्पदरस्स णत्थि अंतरं । एवं मणुसअपज्ज०-एइंदिय-बादरेइंदिय-सुहुमेइंदिय-तेसिं पज्जत्तापज्जत्त-सव्वविगलिंदियपंचिंदियअपज्ज०-पंचकाय० बादरसुहुमपज्जत्तापज्जत्त-तसअपज्ज०-ओरालिमिस्स०-वेउब्वियमिस्स०-विभंगणाणि त्ति । ८३ देव० मिच्छत्त-बारसक०-णवणोक० भुज-अवढि० ज० एगस०, उक० अट्ठारससागरो० सादिरेयाणि । अप्पदर० ओघं'। अणंताणु०चउक्क० अप्पदर० ज० एगस०, अवत्तव्व० ज० अंतोमु० । उक० दोण्हं पि एकत्तीसं सागरो० देसूणाणि । कि अल्पतर स्थितिविभक्तिका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तीन पल्य है। अवक्तव्य स्थितिविभक्तिका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तर पूर्वकोटिपृथक्त्वसे अधिक तीन पल्य है । सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी भुजगार स्थितिविभक्तिका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त, अल्पतर स्थितिविभतिका जघन्य अन्तर एक समय और अवक्तव्य स्थितिविभक्तिका जघन्य अन्तर पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण है। तथा सभी स्थितिविभक्तियोंका उत्कृष्ट अन्तर पूर्वकोटि पृथक्त्वसे अधिक तीन पल्य है। अवस्थित स्थितिविभक्तिका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तर पूर्वकोटि पृथक्त्व है। इसी प्रकार सामान्य, पर्याप्त और मनुष्यनी इन तीन प्रकारके मनुष्योंके जानना चाहिए। किन्तु इतनी विशेषता है कि मिथ्यात्व, सोलह कषाय और नौ नोकषायों की जिस स्थितिविभक्तिके रहते हुए पूर्वकोटि पृथक्त्व कहा है वहाँ कुछ कम पूर्वकोटि अन्तर कहना चाहिये । 5८२. पंचेन्द्रिय तियेच अपर्याप्तकोंमें मिथ्यात्व, सोलह कषाय और नौ नोकषायोंकी भुजगार, अल्पतर और अवस्थित स्थितिविभक्तिका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्महर्त है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी अल्पतर स्थितिविभक्तिका अन्तर नहीं है। इसी प्रकार मनुष्य अपर्याप्त. एकेन्द्रिय, बादर एकेन्द्रिय, सूक्ष्म एकेन्द्रिय, तथा बादर और सूक्ष्मके पर्याप्त और अपर्याप्त, सब विकलेन्द्रिय, पंचेन्द्रिय अपर्याप्त, पाँचों स्थावरकाय तथा इनके बादर और सूक्ष्म तथा पर्याप्त और अपर्याप्त, त्रस अपर्याप्त, औदारिकमिश्रकाययोगी, वैक्रियिकमिश्रकाययोगी और विभंगज्ञानी जीवोंके जानना चाहिए। ८३. देवोंमें मिथ्यात्व, बारह कषाय और नौ नोकषायोंकी भुजगार और अवस्थित स्थितिविभक्तिका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर साधिक अठारह सागर है। अल्पतर स्थितिविभक्तिका अन्तर ओघके समान है। अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी अल्पतर स्थितिविभक्तिका जघन्य अन्तर एक समय और अवक्तव्य स्थितिविभक्तिका जघन्य अन्तर अन्तमुहूर्त है। तथा १. ता. प्रतौ ओघ । अवराम्ब० अणं-इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001410
Book TitleKasaypahudam Part 04
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1956
Total Pages376
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size10 MB
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