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________________ गा०२२] हिदिविहत्तीए उत्तरपडिभुजगारअंतरं सेसं मिच्छत्तभंगा । सम्मत्त-सम्मामि० भुज० ज० अंतोमु०, अप्पद० ज० एगस०, अव्यत्तव्व० ज० पलिदो० असंखे०भागो। उक्क० सव्वेसि पि एकत्तीसंसागरो० देसूणाणि । अवट्टि० ज० अंतोमु०, उक्क० अट्ठारस सागरो० सादिरेयाणि । भवणादि जाव सहस्सार० एवं चेव । णवरि सगढिदी देसूणा।। ८४. आणदादि जाव उवरिमगेवजो ति मिच्छत्त-बारसक०-णवणोक० अप्पदरस्स पत्थि अंतरं। सम्मत्त-सम्मामि० भुज० ज० अंतोमु०, अप्प० ज० एगस०, अवत्तव्य० ज० पलिदो० असंखे०भागो० । अणंताणु०चउका० अप्पदर० अवत्तव्वाणं ज० अंतोमु० । उक्क० सव्येसि पि सगढिदी देसूणा । एवं सुक्कले० । 5 ८५. अणुद्दिसादि जाव सव्वट्ठसिद्धि ति सव्यपयडीणमप्पदर० णत्थि अंतरं । एवमाहार०-आहारमिस्स० अवगद० अकसा०-आभिणि-सुद०-ओहि०-मणपज०-संजद०सामाइय-छेदो०.-परिहार०-सुहुम०-जहाक्खाद०-संजदासंजद-ओहिदंस०-सम्मादि'.. खइय ०-वेदय०-उवसम०-सासण-सम्मामिच्छाइद्वित्ति। ६८६. पंचिंदिय-पंचिं०पज०-तस-तसपञ्ज० मिच्छत्त-बारसक-णवणोक० ओघं। अणंताणु०च उक्क० ओघ । णवरि अवत्तव्व० ज० अंतोमु०, उक्क० सगढिदी देसूणा । दोनोंका ही उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम इकतीस सागर है। शेष स्थितिविभक्तियोंका भंग मिथ्यात्वके समान है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी भुजगार स्थितिविभक्तिका जघन्य अन्तर अन्तमुहूर्त, अल्पतर स्थितिविभक्तिका जघन्य अन्तर एक समय और अवक्तव्य स्थितिविभक्तिका जघन्य अन्तर पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण है। तथा सभीका उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम इकतीस सागर है। अवस्थित स्थितिविभक्तिका जयन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तर साधिक अठारह सागर है । भवनवासियोंसे लेकर सहस्रार स्वर्गतकके देवोंके इसी प्रकार जानना चाहिए। किन्तु इतनी विशेषता है कि कुछ कम अपनी अपनी स्थिति कहनी चाहिए। ८४. आनतकल्पप्ते लेकर उपरिम अवेयकतकके देवोंमें मिथ्यात्व, बारह कषाय और नौ अल्पतर स्थितिविभक्तिका अन्तर नहीं है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी भुजगार स्थितिविभक्तिका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त,अल्पतर स्थितिविभक्तिका जघन्य अन्तर एक समय और अवक्तव्य स्थितिविभक्तिका जघन्य अन्तर पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण तथा अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी अल्पतर और अवक्तव्य स्थितिविभक्तियोंका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। तथा सभीका उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम अपनी अपनी स्थितिप्रमाण है । इसी प्रकार शुक्ललेश्यामें जानना चाहिए। 5८५. अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धितकके देवोंमें सब प्रकृतियोंकी अल्पतर स्थितिविभक्तिका अन्तर नहीं है । इसी प्रकार आहारककाययोगी, आहारक मिश्रकाययोगी, अपगतवेदवाले, अकषायी, आभिनिबोधिकज्ञानी, श्रुतज्ञानी, अवधिज्ञानी,मनःपर्ययज्ञानी, संयत, सामायिकसंयत, छेदोपस्थापनासंयत, परिहारविशुद्धिसंयत, सूक्ष्मसांपरायिकसंयत, यथाख्यातसंयत, संयतासंयत, अवधिदर्शनी, सम्यग्दृष्टि, क्षायिकसम्यग्दृष्टि, वेदकसम्यग्दृष्टि, उपशमसम्यग्दृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवों के जानना चाहिए। ६८६. पंचेन्द्रिय, पंचेन्द्रिय पर्याप्त, बस और सपर्याप्त जीवोंमें मिथ्यात्व, बारह कषाय और नौ नोकषायोंका भंग ओघके समान है। अनन्तानुबन्धी चतुष्कका भंग ओघके समान है। किन्तु १. आ०प्रतौ सम्मामि० इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001410
Book TitleKasaypahudam Part 04
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1956
Total Pages376
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size10 MB
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