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________________ १५६ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [हिदिविहत्ती पुव्वं व अत्थपरूवणा कायवा। णवरि उव्वेल्लणाए वि उदयावलियाए उक्स्ससंखेज्जमेत्तणिसेगेसु सेसेसु संखेज्जभागहाणी लब्भदि । तिसमयकालदोणिसेगेसु सेसेतु संखेज्जभागहाणी होदूण पुणो संखेज्जगुणहाणी होदि; से काले दुसमयकालेगणिसेगुवलंभादो । एवं सव्वपंचकायाणं । $२५९. सव्वविगलिंदिएसु मिच्छत्त-सोलसक० णवणोक० अत्थि असंखेज्जभागवड्डी संखेज्जभागवड्डी च; पलिदो० संखेज्जभागमेत्तवीचारहाणाणं तत्थुवलंभादो। एइंदियाणं विगलिंदिएसुप्पण्णाणं पढमसमए संखेज्जगुणवड्डी किण्ण लब्भदि ? ण, वियलिंदियट्ठिदिं पेक्खिद्ण वियलिंदियहिदिवड्डीए संखज्जगुणत्ताणुवलंभादो। परत्थाणविवक्खाए णोकसायाणमेत्थ संखज्जगुणवड्डीए' वि लब्भदि सा एत्थ ण विवक्खिया ।। २६०. असंखेज्जभागहाणी संखेज्जभागहाणी संखज्जगुणहाणि ति अस्थि तिण्णि हाणीओ। सत्थाणे दो चेव हाणीओ होति । संखज्जगुणहाणी पुण सण्णिपंचिदिएसु पारद्धहिदिकंडयउकीरणद्धाए अभंतरे चेव विगलिदिएसुप्पण्णेसु लब्भदि । एदेसि कम्माणमवट्ठाणं पि अत्थि। सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताणमेइंदियभंगो। एवमसण्णीणं। णवरि संखेज्जगुणवड्डी वि अत्थि; एइंदियाणं विगलिदिएसुप्पण्णाणं तदुवलंभादो । हानि और संख्यातगुणहानिकी अर्थप्ररूपणा पहलेक समान करनी चाहिये । किन्तु इतना विशेषता है कि उद्वलनाके समय भी उदयावलिमें उत्कृष्ट संख्यात निषेकोंके शेष रहने पर संख्यातभागहानि प्राप्त होती है। तथा तीन समय काल स्थितिवाले दो निषेकोंके शेष रहने तक संख्यातभागहानि होकर पुनः संख्यातगुणहानि होती है। क्योंकि तदनन्तर समयमें दो समय कालप्रमाण स्थितिवाला एक निषेक पाया जाता है । इस प्रकार सब पाँचों स्थावरकायिक जीवोंके जानना चाहिए। ६२५६. सव विकलेन्द्रियोंमें मिथ्यात्व, सोलह कषाय और नौ नोकषायोंकी असंख्यातभागवृद्धि और संख्यातभागवृद्धि है; क्योंकि वहाँ पर पल्योपमके संख्यातवें भागप्रमाण वीचारस्थान पाये जाते हैं। शंका जो एकेन्द्रिय विकलेन्द्रियोंमें उत्पन्न होते हैं उनके उत्पन्न होनेके प्रथम समयमें संख्यातगुणवृद्धि क्यों नहीं पाई जाती है ? समाधान नहीं, क्योंकि विकलेन्द्रियोंकी स्थितिको देखते हुए एकेन्द्रियोंसे विकलेन्द्रियोंमें उत्पन्न होने पर विकलेन्द्रियोंकी स्थितिमें जो वृद्धि होती है उसमें संख्यातगुणापना नहीं पाया जाता है। परस्थानकी विवक्षासे नोकषायोंकी यहाँ पर संख्यातगुणवृद्धि भी प्राप्त होती है पर उसकी यहाँ विवक्षा नहीं है। २६०. हानियोंमें असंख्यातभागहानि, संख्यातभागहानि और संख्यातगुणहानि ये तीन हानियाँ होती हैं। परन्तु स्वस्थानमें दो ही हानियाँ होती हैं। संख्यातगुणहानि तो, जो संज्ञी पंचेन्दिय प्रारम्भ किये गये स्थितिकाण्डक उत्कीरणाकालके भीतर ही विकलेन्द्रियोंमें उत्पन्न हुए हैं उनके ही, पाई जाती है। इन उपयुक्त कौंका अवस्थान भी है। तथा सम्यक्त्व और सभ्यग्मिथ्यात्वका भंग एकेन्द्रियों के समान है। इसी प्रकार असंज्ञियोंके जानना चाहिए। किन्तु इतनी विशेषता है कि इनके संख्यातगुणवृद्धि भी है; क्योंकि जो एकेन्द्रिय विकलेन्द्रियोंमें उत्पन्न होते हैं उनके वह पाई जाती है। १ ता. प्रतौ संखेज्जे वड़ी [ए] इति पाठः । २ ता०प्रतौ गुणवट्ठी अस्थि इति पाठः : Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001410
Book TitleKasaypahudam Part 04
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1956
Total Pages376
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size10 MB
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