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________________ गा० २२ ] faणा समुत्तिणा १५७ $ २६१. ओरालियमस्सकायजोगीणं पंचिंदियति रिक्ख अपज्जत्तभंगो । एवं वेउव्वियमिस्स ० - कम्मइय० - अणाहारि ति । सण्णीसु विग्गहगदीप उप्पण्णवियलिंदियाणं व सणी विग्गहगदी उप्पण्णसण्णीणं पि विदियविग्गहे संखेज्जगुणवड्डी णत्थि त्तिण वत्तन्वं कम्मइय-जोगे महाबंध म्मि पठिदसंखेज्जगुणवड्डीए विसयाभावेण अभावाबत्तीदो विशेषाथ - एकेन्द्रियों में जघन्य स्थितिबन्ध से उत्कृष्ट स्थितिबन्ध पल्यके श्रसंख्यातवें भागसे अधिक नहीं होता, इसलिये इनमें मिध्यात्व आदि २६ प्रकृतियोंकी एक असंख्यात भागवृद्धि ही होती है । यही कारण है कि यहाँ अन्य वृद्धियों का निषेध किया । किन्तु हानियाँ तीन होती हैं । यहाँ असंख्यात - भागहानिका पाया जाना तो सम्भव है पर संख्यातभागहानि और संख्यातगुणहानिका पाया जाना कैसे सम्भव है ? इसका वीरसेन स्वामीने यह समाधान किया है कि जो संज्ञी पंचेन्द्रिय जीव उक्त प्रकृतियोंकी संख्यातभागहानि और संख्यातगुणहानि कर रहे हैं वे स्थितिकाण्डकके उत्कीरण काल के भीतर मरकर यदि एकेन्द्रियों में उत्पन्न हो जाँय तब भी उनकी उस स्थितिकाण्डकके घात होने तक वह क्रिया चालू रहती है, अतः एकेन्द्रियोंमें भी उक्त प्रकृतियोंकी संख्यातभागहानि और संख्याबन जाती है । किन्तु स्वयं एकेन्द्रिय जीव संख्यातभागहानि और संख्यातगुणहानिका प्रारम्भ नहीं करते, क्योंकि उनके इनके योग्य विशुद्धि नहीं पाई जाती। चूँकि इनके संख्यात भाग वृद्धि और संख्यातगुणवृद्धि के कारणभूत संक्लेश परिणाम नहीं पाये जाते हैं इसलिये मालूम होता है कि इनके संख्यात भागहानि और संख्यातगुणहानिके कारणभूत विशुद्धिरूप परिणाम भी नहीं पाये जाते हैं । दूसरे इनके स्थितिहतसमुत्पत्तिक काल पल्यके असंख्यातवें भाग प्रमाण बतलाया है इससे भी मालूम होता है कि इनके संख्यात भागहानि और संख्यातगुणहानि नहीं होती । अन्य इन्द्रियवाले जीवों की स्थितिका घात करके एकेन्द्रियके योग्य स्थितिके उत्पन्न करनेमें जितना काल लगता है वह एकेन्द्रियका स्थितिहतसमुत्पत्तिक काल कहा जाता है । कदाचित् यह कहा जाय कि असंख्यात भागहानि, संख्यात भागहानि और संख्यातगुणहानि इन तीनों प्रकारोंसे स्थिति हतसमुत्पत्तिक काल उक्त प्रमाण प्राप्त हो जायगा सो भी बात नहीं है, क्योंकि एक भवस्थिति में जितने असंख्यात भागहानि काण्डकबार होते हैं उसमें संख्यात भागहानि और संख्यातगुणहानि काण्डकबार उनके संख्यातवें भागप्रमाण होते हैं । फल यह होता है कि यदि संख्यात भागहानिके द्वारा संख्यात पल्य प्रमाण स्थितिका घात किया जाता है तो उसमें कुल संख्यात आवलिप्रमाण काल लगता है अब कि यह काल पल्यके असंख्यातवें भागरूपसे विवक्षित नहीं है । किन्तु पल्यका असंख्यातवाँ भाग काल प्रतरावलि से ऊपरका काल कहलाता है अतः सिद्ध हुआ कि एकेन्द्रिय जीव स्वयं संख्यातभागहानि और संख्यातगुणहानिका प्रारम्भ नहीं करते हैं । एकेन्द्रियोंके उक्त प्रकृतियोंका अवस्थान भी होता है, क्योंकि पूर्व समय के स्थितिसत्त्वके समान इनके दूसरे समय में स्थितिबन्ध देखा जाता है । अब रहीं सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृतियाँ, सो इनकी यहाँ चारों हानियाँ पाई जाती हैं । इनके कारणका खुलासा मूल में किया ही है । पाँचों स्थावरकायिक जीवोंके भी इसी प्रकार समझना चाहिये | विकलेन्द्रिय और असंज्ञीके किस कर्मकी कितनी हानि और वृद्धि होती हैं इसका खुलासा भी मूलसे हो जाता है, अतः यहाँ उसका निर्देश नहीं किया है । २६१. दारिक मिश्रकाययोगियों के पंचेन्द्रिय तिर्यंच अपर्याप्तकों के समान भंग है । इसी प्रकार वैक्रियिक/मश्रकाययोगी, कार्मणका ययोगी और अनाहारक जीवोंके जानना चाहिए। जिस प्रकार विकलेन्द्रियके विग्रहगति से संज्ञियों में उत्पन्न होने पर संख्यातगुणवृद्धि सम्भव है उस प्रकार जो संज्ञी विग्रहगति से सज्ञियों में उत्पन्न हुए हैं उनके दूसरे विग्रह में संख्यातगुणवृद्धि नहीं होती है ऐसा नहीं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001410
Book TitleKasaypahudam Part 04
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1956
Total Pages376
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size10 MB
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