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________________ गा० २२] पदणिक्वेवे अप्पाबहुवे १११ एदम्हादो चेव अप्पाबहुगादो। _. * उकस्सिया वड्डी अवहाणं च सरिसा विसेसाहिया । । .६ २०६. केत्तियमेत्तण ? उक्कस्सियाए वड्डीए उकस्सहाणिं सोहिय सुद्धसेससंखेजसागरोवमहिदिमेत्तेण । वड्डिअवठ्ठाणाणं कथं सरिसत्तं ? 'पुव्वविदीओ पेक्खिदूण जेहि द्विदिविसेसेहि द्विदीए बड्डी होदि तेसिं द्विदिविसेसाणं वड्डि त्ति सणा। जेहि हिदिविसेसेहि वड्दूिण हाइदूण वा अवचिट्ठदि तेसिं वड्डिद-हाइदद्विदिविसेसाणमवद्वाणमिदि जण सण्णा तेण वड्डि-अवट्ठाणाणं सरिसत्तं ण विरुज्झदे ।। * एवं सव्वकम्माणं सम्मत्त-सम्मामिच्छत्तवज्जाणं । २०७. जहा मिच्छत्तस्स अप्पाबहुअं परूविदं तहा सम्मत्त-सम्मामिच्छत्तवजाणं सव्वकम्माणमप्पाबहुअं परूवेदव्वं विसेसाभावादो। जासु पयडीसु विसेसो अस्थि तस्स विसेसस्स परूवणमुत्तरसुत्तं 'भणदि। . * णवरि णवंसयवेद-अरदि--सोग-भय-दुगुंछाणमुक्कस्सिया वड्डी अवठाणं थोवा। ६ २०८. कुदो, पलिदो० असंखे भागेणब्भहियबीससागरोवमकोडाकोडिपमाणत्तादो। शंका-यह किस प्रमाणसे जाना जाता है ? समाधान-इसी अल्पबहुत्वसे जाना जाता है। * उत्कृष्ट वृद्धि और अवस्थान ये दोनों समान होते हुए विशेष अधिक हैं। २०६. कितने अधिक हैं ? उत्कृष्ट वृद्धि मेंसे उत्कृष्ट हानिको घटाकर जो संख्यात सागर स्थिति शेष रहती है तत्प्रमाण अधिक हैं। शंका-वृद्धि और अवस्थान समान कैसे हो सकते हैं ? समाधान-पहलेकी स्थितियोंको देखते हुए जिस स्थिति विशेषकी अपेक्षा स्थिति की वृद्धि हो उन स्थितिविशेषोंकी चूकि वृद्धि यह संज्ञा है। तथा जिन स्थिति विशेषोंकी अपेक्षा बढ़कर या घट कर स्थिति स्थित रहती है उन बढ़ी हुई या घटाई हुई स्थितियोंकी चूंकि अवस्थान यह संज्ञा है इसलिये वृद्धि और अवस्थानके समान होनेमें कोई विरोध नहीं आता है। .... * इसी प्रकार सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वको छोड़कर सब कर्मोका अल्पबहुत्व जानना चाहिए। ६२०७. जिसप्रकार मिथ्यात्वके अल्पबहुत्वका कथन किया उसी प्रकार सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वको छोड़कर शेष सब कर्मों के अल्पबहुत्वका कथन करना चाहिये, क्योंकि उससे इसमें कोई विशेषता नहीं है। तथा जिन प्रकृतियोंमें विशेषता है उनकी विशेषताके कथन करने के लिये मागेके सूत्रको कहते हैं.. * किन्तु इतनी विशेषता है कि नपुंसकवेद, अरति, शोक, भय, और जुगुप्साकी उत्कृष्ट वृद्धि और अवस्थान थोड़ा है। ६ २०८. क्योंकि इनकी वृद्धि और अवस्थानका प्रमाण पल्योपमके असंख्यातवें भागसे , आ. प्रतौ पुध हिदीभो इति पाठः । २ आ, प्रतौ भणिदं इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001410
Book TitleKasaypahudam Part 04
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1956
Total Pages376
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size10 MB
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