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________________ ११० जयधवला सहिदे कसायपाहुडे • [ द्विदिविहती ३ बंधिय सम्मत्तं पडिवण्णो तस्स जह० वड्डी । जह० हाणी कस्स १ अण्णद० गलमाणअट्ठदिस्स । अट्ठास्स उकस्सभंगो । एवं चदुसु गदीसु । णवरि पंचिं० तिरि० अपज० मणुस अपजत्तरसु सम्मत्त० सम्मामि ० जह० हाणी कस्स १ अण्णद० गलमाण अध द्विदिस्स | ६ २०३. आणदादि जाव णवगेवजा त्ति छन्वीसं पयडीणं जहणिया हाणी कस्स १. अण्णद • गलमाणअधट्ठिदिस्स । सम्मत्त० - सम्मामि० जह० वड्डी कस्स ? अण्णद० जो मिच्छत्तं गंतूण एगमुव्वेल्लणकंडयमुच्वेल्लेण पुणो सम्मत्तं पडिवण्णो तस्स पढ़मसमयसम्माइट्ठिस्स सम्मत्त - सम्मामिच्छत्ताणं जह० वड्डी । जह० हाणी कस्स १ गलमाणअध डिस्सि | अणुद्दिसादि जाव सव्वडे ति अट्ठावीसपयडीणं जह० हाणी कस्स ? अष्णद • गलमाणअधट्ठिदिस्स । एवं जाणिदूण णेदव्वं जाव अणाहारए ति । * अप्पा बहुए पयदं । ९ २०४ संपहि पत्तावसरमप्पाबहुअं परूवेमित्ति भणिदं होदि । * मिच्छुत्तस्स सव्वत्थोवा उक्कस्सिया हाणी । २०५. कुदो ? जत्तियमेतद्विदीओ उकस्सेण वड्डिदूण बंधदि । पुणो कंडयघादेण उकस्सेण घादयमाणस्स तत्तियमेत्तट्ठिदीणं घादणसत्तीए अभावादो । तं कुदो णव्वदे १ होती है । जघन्य हानि किसके होती है ? जिसके प्रति समय अधःस्थिति गल रही है ऐसे किसी जीवके जघन्य हानि होती है । जघन्य अवस्थानका भंग उत्कृष्ट के समान है। इसी प्रकार चारों गतियों में जानना चाहिए। किन्तु इतनी विशेषता है कि पंचेन्द्रिय तिर्यञ्च अपर्याप्त और मनुष्य अपर्याप्त जीवों में सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी जधन्य हानि किसके होती है ? जिसके अधः स्थिति ग़ल रही है उसके जघन्य हानि होती है । $ २०३. अनतकल्पसे लेकर नौ ग्रैवेयकतकके देवों में छब्बीस प्रकृतियोंकी जघन्य हानि किसके होती है ? जिसके प्रति समय अधःस्थिति गल रही है उसके जघन्य हानि होती है । सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व की जघन्य वृद्धि किसके होती है ? जो मिथ्यात्वको प्राप्त होकर और एक उद्वेलनाकाण्डककी उद्व ेलना करके पुनः सम्यक्त्वको प्राप्त हुआ है उस सम्यग्दृष्टि के प्रथम समय में सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी जघन्य वृद्धि होती है । जघन्य हानि किसके होती है ? जो प्रति समय अधःस्थितिको गला रहा है उसके जघन्य हानि होती है। अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धितकके देवों में अट्ठाईस प्रकृतियों की जघन्य हानि किसके होती है ? जिसके प्रति समय अधःस्थिति गल रही है उसके जघन्य हानि होती है। इसी प्रकार जानकर अनाहारक मार्गणातक कथन करना चाहिये । * अब अल्पबहुत्वका प्रकरण है । २०४. अब अवसर प्राप्त अल्पबहुत्वानुगमका कथन करते हैं यह उक्त कथनका तात्पर्य हैं । * मिध्यात्वकी उत्कृष्ट हानि सबसे थोड़ी है। ६ २०५. क्योंकि यह जीव जितनी स्थितिको उत्कृष्टरूप से बढ़ाकर बाँधता है, काण्डकघात के द्वारा उत्कृष्ट रूपसे घात करते हुए उस जीवके उतनी स्थिति के घात करने की शक्ति नहीं पाई जाती हैं। तात्पर्य यह है कि एक बार में जितनी स्थिति बढ़ाकर बांधता है उतनी स्थितिका एक बार में घात नहीं होता । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001410
Book TitleKasaypahudam Part 04
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1956
Total Pages376
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size10 MB
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