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गा० २२] वहिपरूवणाए समुक्त्तिणा
१५३ हाणी संखेन्जमागहाणी । सम्मत्त० अत्थि असंखेजमागहाणी संखेजभागहाणी संखेन्जगुणहाणी च । अणंताणु०चउक्क० अस्थि चत्तारि हाणी। - ६२५६. इंदियाणुवादेण एइंदिय-बादरसुहमपञ्जत्तापजत्ताणं मिच्छत्त-सोलसक.. णवणोक० अस्थि असंखेजभागवड्डी। सेसबड्डीओ णत्थि । कुदो ? आवलियाए असंखेजदिभागमेतआवाहट्ठाणपमाणण्णहाणुववत्तीदो। असंखेजभागहाणी संखेजभागहाणी संखेजगुणहाणि त्ति अत्थि तिणि हाणीओ। संखेजभागहाणि-संखेजगुणहाणीणं कथं संभवो ? ण एस दोसो; संखेज्जभागहाणि-संखेजगुणहाणीओ कुणमाणसण्णिपंचिंदिएसु असमत्तहिदिकंडयउकीरणद्धेसु एइंदिएसु पविट्ठसु तासि दोण्हं हाणीणं तत्थुवलंभादो ।
और संख्यातभागहानि हैं। सम्यक्त्वकी असंख्यातभागहानि, संख्यातभागहानि और संख्यातगुणहानि है । तथा अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी चार हानियाँ हैं ।
विशेषार्थ-आनतादिकमें स्थितिसत्त्वसे हीन स्थितिका ही बन्ध होता है इसलिये यहाँ मिथ्यात्व आदि २२ प्रकृतियोंकी वृद्धि तो सम्भव ही नहीं हाँ हानि अवश्य होती है फिर भी यहाँ मिथ्यात्व आदिकी जघन्य और उत्कृष्ट स्थिति अन्तःकोड़ाकोड़ी सागरसे अधिक नहीं होती, इसलिये उक्त २२ प्रकृतियोंकी असंख्यातभागहानि और संख्यातभागहानि ये ही दो हानियाँ सम्भव हैं। इनमें से असंख्यातभागहानि तो अधःस्थितिगलनाकी अपेक्षा प्राप्त होती है और संख्यातभागहानि क्वचित् स्थितिकाण्डकघातकी अपेक्षा प्राप्त होती है। अब रहीं छह प्रकृतियाँ। सो यहाँ सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी उद्वलना, सम्यक्त्वकी प्राप्ति और अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजना ये सब कुछ सम्भव हैं अतः यहाँ सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी चारों वृद्धियाँ, चारों हानियाँ, अवक्तव्य तथा अनन्तानुबन्धीकी चारों हानियाँ और अवक्तव्य बन जाते हैं। किन्तु अवस्थान किसीका नहीं बनता, क्योंकि जो बँधनेवाली २६ प्रकृतियाँ हैं उनका बन्ध तो स्थितिसत्त्वसे उत्तरोत्तर कम ही होता है, अतः इनका अवस्थान नहीं बनता और जो सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृतियाँ हैं सो इनका अवस्थान तब बने जब सम्यक्त्व या सम्यग्यिथ्यात्वकी स्थितिसे मिथ्यात्वकी एक समय अधिक स्थितिवाला जीव सम्यक्त्वको ग्रहण करे पर यहाँ ऐसा सम्भव नहीं। परन्तु यतिवृषभाचार्य के मतसे अवस्थान सम्भव है। आनतादिकमें मिथ्यात्व आदि २२ प्रकृतियोंकी दो हानियोंका जिस प्रकार कथन किया उसी प्रकार अनुदिशादिकमें भी करना चाहिये। किन्तु यहाँ सब जीव सम्यग्दृष्टि ही होते हैं अतः सम्यग्मिथ्यात्वकी भी यहाँ हानियाँ ही प्राप्त होती हैं जो मिथ्यात्वके समान जानना चाहिये। अब रहीं शेष पाँच प्रकृतियाँ सो यहाँ कृतकृत्यवेदकसम्यग्दृष्टि भी उत्पन्न होते हैं और अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजना भी होती है, अतः सम्यक्त्वकी असंख्यातगुणहानिके सिवा शेष तीन हानियाँ और अनन्तानुबन्धीकी चारों हानियाँ बन जाती हैं।
६२५६. इन्द्रियमार्गणाके अनुवादसे एकेन्द्रिय तथा उनके बादर और सूक्ष्म तथा पर्याप्त और अपर्याप्तकोंमें मिथ्यात्व, सोलह कषाय और नौ नोकषायोंकी असंख्यातभागवृद्धि है। शेष वृद्धियाँ नहीं हैं, क्योंकि आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण आवाधास्थानका प्रमाण अन्यथा बन नहीं सकता है । हानियोंमें असंख्यातभागहानि, संख्यातभागहानि और संख्यातगुणहानि ये तीन हानियाँ हैं।
शंका-यहाँ संख्यातभागहानि और संख्यातगुणहानि कैसे सम्भव है ?
समाधान—यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि जो संख्यातभागहानि और संख्यातगुणहानिको कर रहे हैं तथा जिन्होंने स्थितिकाण्डकघातके उत्कीरणकालको समाप्त नहीं किया है ऐसे पंचेन्द्रियों के
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