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________________ १५४ जयधवला सहिदे कसायपाहुडे [ हिदिविहत्ती ३ जेण ततिओ द्विदिकंडओ अणुभागक्खंडओ वा पादेदुमाढतो तेण एइंदिएस वि गदस्स तस्स णिच्छण पदेदव्वमिदि कुदोवगम्मदे ? परमगुरूवएसादो । एइंदिएस पुण डिदि - कंदयायामो पलिदो० असंखेज्जभागमे तो चेव । एदं कुदो णव्वदे ? एइंदियाणं पलिदो० असंखेजभागमे तवीचारड्डाणपरूवणादो । सष्णिपंचिंदियपच्छायदएइंदिओ छब्वीसहं कम्माणमंतोमुडुत्तणसण्णिसंबंधि उकस्स डि दिसंत कम्मिओ संखेज्जभागहाणि-संखेजगुणहाणीओ कण करेदि १ ण, एइंदिएसु संखेजभागहाणि संखेज गुणहाणीणं कारणभूदविसो भावाद । तं कुदो णव्वदे ? तत्थ संखेज भागवड्डि-संखेजगुणवड्डीणं कारण भूदसंकिलेसाणमभावादो | संकिलेसाभावो विसोहीए अमावस्स कथं गमओ ! ण, सव्वत्थ पडिओगीसु एकस्साभावे अवरस्स वि अभावुवलंभादो डिदिहदसमुप्पत्तियकालस्स पलिदो ० असंखेज्जभागपमाणत्तण्णहाणुववत्तीदो वा संखेज्जभागहाणि संखेज्जगुणहाणीणं तथाभावो मदे | तीहि वि पयारेहि ट्ठिदिखंडए घादिदे एसो कालो लब्भदि त्ति एकेन्द्रियों में उत्पन्न होने पर वहाँ ये दोनों हानियाँ बन जाती हैं । शंका- जिसने उतने स्थितिकाण्डक और अनुभागकाण्डका पतन करनेके लिये आरम्भ किया है उस जीव एकेन्द्रियों में भी चले जाने पर उस स्थितिकाण्डक और अनुभागकाण्डकका पतन होना ही चाहिये यह किस प्रमाणसे जाना जाता है ? समाधान - परम गुरुके उपदेशसे जाना जाता है । परन्तु एकेन्द्रियोंमें स्वस्थानकी अपेक्षा स्थितिकाण्डकका आयाम केवल पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है । शंका- यह किस प्रमाणसे जाना जाता है ? समाधान — क्योंकि एकेन्द्रियोंके वीचारस्थान पल्यके असंख्यातवें भागमात्र कहे हैं, इससे जाना जाता है कि एकेन्द्रियों में स्थितिकाण्डकका आयाम पल्य के असंख्यातवें भागप्रमाण है । शंका- — जो संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्यायसे आकर एकेन्द्रिय हुआ है और जिसके छब्बीस कर्मो का अन्तर्मुहूर्तकम संज्ञीसम्बन्धी उत्कृष्ट स्थितिसत्कर्म है वह संख्यातभागहानि और संख्यातगुणहानिको क्यों नहीं करता है ? - समाधान — नहीं, क्योंकि एकेन्द्रियोंमें संख्यातभागहानि और संख्यातगुणहानिकी कारणभूत विशुद्धियों का अभाव है । शंका- यह किस प्रमाणसे जाना जाता है ? - समाधान — क्योंकि वहाँ पर संख्यात भागवृद्धि और संख्यातगुणवृद्धि के कारणभूत संक्लेशका अभाव है । शंका-संक्लेशका अभाव विशुद्धि के अभावका गमक कैसे हो सकता है ? समाधान — नहीं, क्योंकि सर्वत्र प्रतियोगियोंमें एकका अभाव होने पर दूसरेका भी अभाव पाया जाता है। अथवा स्थितिहतसमुत्पत्तिक काल पल्य के असंख्यातवें भागप्रमाण अन्यथा बन नहीं सकता है, इससे जाना जाता है कि एकेन्द्रियों में संख्यात भागहानि और संख्यातगुणहानिका अभाव है । तीनों ही प्रकारों से स्थितिकाण्डकका घात करने पर यह काल प्राप्त होता है ऐसी आशंका नहीं कर नी १ ता• प्रतौ तं कुदो णन्त्रदे संकिलेसाभावो इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001410
Book TitleKasaypahudam Part 04
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1956
Total Pages376
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size10 MB
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