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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[हिदिविहत्ती३ ताणु०चरकः अस्थि तिण्णिवड्डी चत्तारिहाणी अवट्ठि० अवत्तव्वं च । एवं सव्वणेरइय-तिरिक्ख०-पंचिंदियतिरिक्ख०-पंचिंतिरि०पज्ज०-पंचिं०तिरि०जोणिणि-देव.. भवणादि जाव सहस्सार०-वेउन्वि०कायजोगि-तिण्णिलेस्सिया ति। पंचिंदियतिरिक्खअपज्ज. छव्वीसपयडीणमस्थि तिण्णिवड्डी तिण्णिहाणी अवडाणं च । सम्म०सम्मामि० अत्थि चत्तारिहाणी । एवं मणुसअपज्ज०-पंचिं०अपज्ज-तसअपज्जत्ते त्ति ।
६ २५५. आणदादि जाव उवरिमगेवज्जे त्ति मिच्छत्त०-बारसक० णवणोक० अस्थि असंखेज्जभागहाणीसंखेज्जभागहाणी। सम्मत्त०-सम्मामि० अत्थि चत्तारिवड्डी चत्तारिहाणी अवत्तव्वं च। अवट्ठाणं णत्थि, सम्मत्तहिदीदो समयुत्तरमिच्छत्तहिदिसंतकम्मेण सम्मत्तग्गहणाभावादो । अणंताणु०चउक्क० अत्थि चत्तारिहाणो अवत्तव्वं च । अणुद्दिसादि जाव सबट्टसिद्धि त्ति मिच्छत्त सम्मामि०-बारसकसा०-णवणोक० अस्थि असंखेजभाग
हानियाँ, अवस्थान और अवक्तव्य हैं। अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी तीन वृद्धियाँ, चार हानियाँ, अवस्थान और अवक्तव्य हैं। इसी प्रकार सब नारकी, तिर्यंच, पंचेन्द्रिय तिर्यंच, पंचेन्द्रिय तिर्यंच पर्याप्त, पंचेन्द्रिय तिथंच योनिमती, सामान्य देव, भवनवासियोंसे लेकर सहस्रार स्वर्गतकके देव, वैक्रियककाययोगी, और तीन लेश्यावाले जीवोंके जानना चाहिए। पंचेन्द्रिय तिर्यंच अपर्याप्तकों में छब्बीस प्रकृतियोंकी तीन वृद्धियाँ, तीन हानियाँ और अवस्थान हैं। तथा सम्यक्त्व और सम्य. ग्मिथ्यात्वकी चार हानियाँ हैं । इसी प्रकार मनुष्य अपर्याप्त, पंचेन्द्रिय अपर्याप्त और त्रस अपर्याप्त जीवोंके जानना चाहिये। - विशेषार्थ-ओघसे मिथ्यात्व आदि प्रकृतियोंकी जितनी वृद्धियाँ, हानियाँ व अवस्थान आदि बतलाये हैं वे सब सामान्य मनुष्य आदि मूलमें कही गई मार्गणाओंमें सम्भव हैं, अत: उनके कथनको ओघके समान कहा है, क्योंकि उक्त मार्गणाओंमें दर्शनमोहनीय और चारित्रमोहनीयकी क्षपणा सम्भव है। किन्तु सामान्य नारकी आदि कुछ ऐसी मागणाएँ हैं जिनमें अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजना और सम्यक्त्व तथा सम्यग्मिथ्यात्वकी उदलना पाई जानेसे इन छह प्रकृतियोंका कथन
ओघके समान बन जाता है किन्तु शेष बाईस प्रकृतियोंकी एक असंख्यातगुणहानि नहीं पाई जाती, क्योंकि उक्त मार्गणाओंमें दर्शनमोहनीय और चारित्रमोहनीयकी क्षपणा नहीं होती। पंचेन्द्रिय तिथंच लब्ध्यपर्याप्तक आदि कुछ ऐसी मार्गणाएँ हैं जिनमें सम्यक्त्वकी प्राप्ति नहीं होती; अतः इनमें सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी एक भी वृद्धि और अवस्थान नहीं होता किन्तु उद्वलनाकी प्रधानतासे चारों हानियाँ बन जाती हैं। तथा अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजना और दर्शनमोहनीय तथा चारित्रमोहनीयकी क्षपणा नहीं होती इसलिये यहाँ शेष २६ प्रकृतियोंकी असंख्यातगुणहानि भी नहीं होती। किन्तु शेष हानि, वृद्धि और अवस्थान बन जाते हैं।
६२२५. आनतकल्पसे लेकर उपरिम अवेयकतकके देवोंमें मिथ्यात्व, बारह कषाय और नौ नोकषायोंकी असंख्यातभागहानि और संख्यातभागहानि है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी चार वृद्धियाँ, चार हानियाँ और अवक्तव्य हैं। अवस्थान नहीं है, क्योंकि यहाँ पर सम्यक्त्वकी स्थितिसे एक समय अधिक मिथ्यात्वकी स्थिति सत्कर्मवाला जीव सम्यक्त्वको ग्रहण नहीं करता है। अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी चार हानियाँ और अवक्तव्य हैं। अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तकके देवोंमें मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व, बारह कषाय और नौ नोकषायोंकी असंख्यातभागहानि
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