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________________ १५१ गा० २२] वडिपरूवणाए समुक्त्तिणा ट्ठिदिसंतकम्मिएण पढमसम्मत्ते गहिदे एत्थतणचरिमअसंखेजगुणवड्डी होदि । एवमुवसमसम्मत्तपाओग्गमिच्छत्तद्विदीणं पादेकं णिरुंभणं कादूण परूविदे असंखेजगुणवड्डिवियप्पा लद्धा होति । सम्मत्त-सम्मामिच्छत्तणिस्संतकम्मिएण सादियमिच्छाइट्ठिणा अणादियमिच्छाइट्टिणा वा पढमससम्मत्ते गहिदे अवतव्वं होदि। कुदो, पुव्वमविजमाणहिदि. संतुष्पत्तीदो। $ २५४. एवं चुण्णिसुत्तमस्सिदूण समुक्त्तिणपरूवणं करिय संपहि उच्चारणमस्सिदुण भणिस्सामो । वड्डिविहत्तीए तत्थ इमाणि तेरस अणियोगद्दाराणि-समुक्कित्तणादि जाव अप्पाबहुए त्ति । समुक्त्तिणाए पयदं । दुविहो णिदेसो-ओधे० आदेसे० । ओघेण मिच्छत्तबारसक०-णवणोकसायाणं अत्थि तिण्णिवडि-चत्तारिहाणि-अवडिदाणि । एवमणंताणु०चउक्क० । णवरि अवत्तव्वं पि अस्थि । सम्मत्त-सम्मामि० चत्तारिखड्डि-चत्तारि हाणि अवद्विद-अवत्तव्याणि अस्थि । एवं मणुसतिय-पंचिंदिय-पंचि०पज० तस-तसपज०. पंचमण०-पंचवचि०-कायजोगि०-ओरालि०-तिण्णिवेद-चत्तारिक०-चक्खु०-अचक्खु०. भवसि०-सण्णि-आहारि त्ति । ६२५४. आदेसेण णेरइएसु मिच्छत्त-बारसक० णवणो० अत्थि तिण्णिवड्डी तिण्णिहाणि अवट्ठाणं च । असंखे गुणहाणी णस्थि; दंसणचरित्तमोहाणं खवणाभावादो। सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताणमत्थि चत्तारि वड्डी चत्तारि हाणी अवढि अवत्तब्वं च । अणं सत्तामें है ऐसे मिथ्यादृष्टि जीवके प्रथम सम्यक्त्वके ग्रहण करने पर इस स्थान सम्बन्धी अन्तिम असंख्यातगुणवृद्धि होती है। इसी प्रकार उपशमसम्यक्त्वके योग्य मिथ्यात्वकी स्थितियोंको अलग अलग ग्रहण करके प्ररूपण करने पर असंख्यातगुणवृद्धिके भेद प्राप्त होते हैं। जिसने सम्यक्त्व या सम्यग्मिथ्यात्वस्थितिसत्कर्मको निःसत्त्व कर दिया है ऐसे सादि मिथ्यादृष्टि जीवके द्वारा या अनादि मिथ्यादृष्टि जीवके द्वारा प्रथम सम्यक्त्वके ग्रहण करने पर अवक्तव्य भंग होता है। क्योंकि पहले इनकी सत्ता नहीं थी किन्तु अब हो गई है। ६२५४. इस प्रकार चूर्णिसूत्रके आश्रयसे समुत्कीर्तनाका कथन करके अब उच्चारणाके आश्रयसे समुत्कीर्तनाका कथन करते हैं-वृद्धिविभक्तिमें समुत्कीर्तनासे लेकर अल्पबहुत्व तक तेरह अनुयोगद्वार होते हैं। उनमेंसे समुत्कीर्तनाका प्रकरण है। उसकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघनिर्देश और आदेशनिर्देश । उनमेंसे ओघकी अपेक्षा मिथ्यात्व, बारह कषाय और नौ नोकषायोंकी तीन वृद्धियाँ चार हानियाँ और अवस्थानपद होते हैं। इसी प्रकार अनन्तानुबन्धीचतुष्कके जानना चाहिए। किन्तु इतनी विशेषता है कि इसका प्रवक्तव्य भंग भी होता है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी चार वृद्धियाँ, चार हानियाँ अवस्थान और अवक्तव्य होते हैं । इसी प्रकार मनुष्यत्रिक पंचेन्द्रिय, पंचेन्द्रियपर्याप्त, त्रस, सपर्याप्त, पाँचों मनोयोगी, पाँचों वचनयोगी, काययोगी, औदारिककाययोगी, तीनों वेदवाले, चारों कषायवाले, चक्षुदशनवाले, अचक्षुदर्शनवाले, भव्य, संज्ञी और आहारक जीवोंके जानना चाहिये। ६२५४. आदेशानर्देशकी अपेक्षा नारकियोंमें मिथ्यात्व, बारह कषाय और नौ नोकषायोंकी तीन वृद्धियाँ, तीन हानियाँ और अवस्थान हैं। असंख्यातगुणहानि नहीं है क्योंकि वहाँ दर्शनमोहनीय और चारित्रमोहनीयकी क्षपणा नहीं होती। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी चार वृद्धियाँ, चार Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001410
Book TitleKasaypahudam Part 04
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1956
Total Pages376
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size10 MB
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