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________________ गा० २२] वडिपरूबणा १२५ भागहारका प्रमाण ध्रुवस्थितिका चौथा भाग, पाँचवाँ भाग आदि प्राप्त होता है। अब मान लो एक जीव ऐसा है जिसने पिछले समयमें ध्रुवस्थितिका बन्ध किया और अगले समयमें ध्रवस्थितिमें जितने पल्य हों उतने समय अधिक ध्रवस्थितिका बन्ध किया तब भी असंख्यात भागवद्धि ही प्राप्त होती है। क्योंकि यहाँ भागहारका प्रमाण पल्य है। इसी प्रकार उत्तरोत्तर पिछले समयमें बँधनेवाली ध्रुवस्थितिसे अगले समयमें बंधनेवाली स्थितिमें एक एक समय बढ़ाते जाओ और उनका भागहार प्राप्त करते जाओ। ऐसा करते करते भागहारका प्रमाण जघन्य परीतासंख्यात प्राप्त होगा। अर्थात् पिछले समयमें किसीने ध्रुवस्थितिका बन्ध किया और अगले समयमें इतनी अधिक स्थितिका बन्ध किया जो, ध्रुवस्थितिमें जघन्य परीतासंख्यातका भाग देनेपर जितना लब्ध प्राप्त हो, उतनी अधिक है तो भी असंख्यातभागवृद्धि ही होती है। इस प्रकार यहाँ तक असंख्यातभागवृद्धिका क्रम चालू रहा । अब इसके आगे भागहारमें यदि एक और कम हो जाय तो संख्यातभागवृद्धि प्राप्त होवे । किन्तु पूर्वोक्त बढ़ी हुई स्थितिमें एक समय आदि स्थितिके बढ़नेसे भागहारमें एककी कमी न होकर वह बटोंमें प्राप्त होता है। किन्तु इसकी परीतासंख्यात और उत्कृष्ट संख्यात इनमेंसे किसीमें भी गणना नहीं की जा सकती है, क्योंकि उत्कृष्ट संख्यातमें एकके मिलाने पर जघन्य परीतासंख्यात होता है, या जघन्य परीतासंख्यातमेंसे एकके घटाने पर उत्कृष्ट संख्यात होता है ऐसा नियम है। किन्तु यहाँ पर जघन्य परीतासंख्यातमेंसे पूरा एक न घटकर उत्तरोत्तर एकके अंशोंकी कमी होती गई है अतः इसे अवक्तव्यभागवृद्धि कहते हैं। किन्तु इसका यह मतलब नहीं कि यह नगणना संख्याके बाहर है। यदि द्रव्यदृष्टिसे विचार किया जाता है तो वे सब अंश उत्कृष्ट संख्यातके ऊपर प्राप्त होनेवाले एकके हैं अतः उनका अन्तर्भाव जघन्य परीतासंख्यातमें हो जाता है। और यदि पर्यायदृष्टिसे विचार किया जाता है तो वे सब अंश एकसे कथञ्चित् भिन्न हैं इसलिये उनका जघन्य परीतासंख्यातमें अन्तर्भाव नहीं होता। जब अन्तर्भाव हो जाता है तब तो उनका भेदरूपसे विचार नहीं किया जाता है। और जब अन्तर्भाव नहीं होता तब उनकी अवक्तव्य संज्ञा रहती है। प्रकृतमें वृद्धिका विचार चला है अतः उसकी अवक्तव्यवृद्धि यह संज्ञा हो जाती है। ध्रुवस्थितिमें जघन्य परीतासंख्यातका भाग देनेसे जो प्राप्त हो उसमें उत्कृष्ट संख्यातका भाग दो और जो प्राप्त हो उसमें से एक कम कर दो ऐसा करनेसे जितने विकल्प प्राप्त होते हैं उतने विकल्प होने तक अवक्तव्य भागवृद्धिका क्रम चालू रहता है। अर्थात् पूर्वोक्त बढ़ी हुई स्थितिमें स्थितिके इतने समय बढ़ जाने तक अवक्तव्यभागवृद्धि होती है। यहाँ सर्वत्र पिछले समयमें ध्रवस्थितिका बन्ध कराना चाहिये और अगले समयमें एक एक समय अधिक स्थितिका बन्ध कराना चाहिये ; क्योंकि जैसा कि पहले बतला आये हैं तदनुसार ध्रुवस्थितिकी अपेक्षा ही यहाँ असंख्यातभागवृद्धि आदिका विचार किया जा रहा है। इस क्रमसे स्थितिमें एक एक समयके बढ़ाने पर जब छेदभागहार समाप्त हो आता है तब संख्यात भागवृद्धि प्राप्त होती है। और जब संख्यातभागवृद्धि समाप्त हो जाती है तब संख्यातगुणवृद्धि प्राप्त होती है। संख्यातगुणवृद्धिका पहला विकल्प प्राप्त होने पर ध्रुवस्थिति दूनी हो जाती है । अर्थात् पहले समयमें जब कोई ध्रुवस्थितिका बन्ध करता है और अगले समयमें उससे दूनी स्थितिका बन्ध करता है तो यह जघन्य संख्यातगुणवृद्धि होती है, क्योंकि पहले समयमें बँधी हुई स्थितिसे अगले समयमें बधनेवाली स्थिति दुनी हो जाती है। इस प्रकार अब आगे सत्तर कोड़ाकोड़ी सागर स्थितिके प्राप्त होने तक संख्यातगुणवृद्धि ही होती जाती है। इतने विचारसे इतना निश्चित होता है कि ध्रुवस्थितिको माध्यम मानकर असंख्यातभागवृद्धि, संख्यातभागवृद्धि और संख्यातगुणवृद्धि ये तीन वृद्धियाँ ही प्राप्त होती हैं। अब इस विषयको उदाहरण देकर स्पष्ट किया जाता है-नीचे उदाहरणमें जहाँ...'इस प्रकार चिन्ह हैं वहाँ मध्यके विकल्प छोड़ दिये हैं ऐसा समझना चाहिये। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001410
Book TitleKasaypahudam Part 04
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1956
Total Pages376
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size10 MB
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