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________________ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ हिदिविहत्ती ३ ६३८. कुदो ? भुजगारमप्पदरं वा कुणमाणेण एगसमयसंतसमाणद्विदीए परद्धाए अवडिदस्स एगसमयुवलंमादो * उकस्सेण अंतोमुहुत्तं । F३९. कुदो ? भुजगारमप्पदरं वा कादण संतसमाणढिदिवंधस्स उकस्सेण अंतोमुहुत्तमत्तकालुवलंभादो __ * एवं सोलसकसाय-णवणोकसायाणं । ४०. जहा मिच्छत्तस्स भुजगार-अप्पदर-अवहिदाणं परूवणा कदा तहा सोलकणवणोकसायाणं भुजगार-अष्पदर-अवविदाणं वि परूवणा कायया । एत्थतण. विसेसपरूवणमुत्तर सुत्तं भणदि । * गवरि भुजगारकम्मसिनो उक्कस्सेण एगूणवीससमया । ६ ४१. तं जहा-सत्तारससमयाहियएगावलियसेसाउएण एइंदिएण अणंताणुबंधिकोचं मोत्तूण सेसमाणादिपण्णारसपयडीसु परिवाडीए पण्णारससमयेहि अद्धाक्खएण अण्णोण्णं पेक्खिय वडिय बद्धासु पण्णारस वि पयडीओ भुजगारसंकमपाओग्गाओ जादाओ । पुणो बंधावलियमेत्तकाले अदिकंते सत्तरससमयमेत्ताउअसेसे पुवुत्तावलिय. कालम्मि पढमसमयपहुडि पण्णारससमासु वणि बद्धपण्णारसपयाडट्टिदि बंधपरिवाडीए अणंताणुवंधिकोघे संकममाणस्स पण्णारस भुजगारसमया अणंताणुबंधिकोधस्स ६३८. क्योंकि भुजगार या अल्पतरको करनेवाले किसी जीवके द्वारा एक समय तक सत्तामें स्थित स्थितिके समान स्थितिका बन्ध करने पर अवस्थितका एक समय काल पाया जाता है। * उत्कृष्ट काल अन्तमुहूर्त है। ६३६. क्योंकि भुजगार या अल्पतर करके सत्तामें स्थित स्थितिके समान स्थितिके निरन्तर बँधनेका उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त पाया जाता है। * इसी प्रकार सोलह कषाय और नौ नोकषायांका काल जानना चाहिये। ६४०. जिस प्रकार मिथ्यात्वके भुजगार, अल्पतर और अवस्थित भंगोंका कथन किया है उसी प्रकार सोलह कषाय और नौ नोकषायोंके भुजगार, अल्पतर और अवस्थित विकल्पोंका कथन करना चाहिये । अब यहाँ पर विशेष कथन करनेके लिये आगेका सूत्र कहते हैं --- * इतनी विशेषता है कि भुजगारस्थितिविभक्तिवालेका उत्कृष्ट काल उन्नीस समय है। ६४१. उसका खुलासा इस प्रकार है-जिसके सत्रह समय अधिक एक आवलिप्रमाण आयु शेष है ऐसे एकेन्द्रियके द्वारा अनन्तानुबन्धी क्रोधको छोड़कर शेष मान आदि पन्द्रह प्रकृतियोंके क्रमसे पन्द्रह समयोंमें अद्धाक्षयसे एक दूसरेको देखते हुए उत्तरोत्तर स्थितिको बढ़ाकर बाँधने पर पन्द्रह ही प्रकृतियाँ भुजगारसंक्रमके योग्य हो गई। पुनः बन्धावलिप्रमाण कालके व्यतीत हो जाने पर और उस एकेन्द्रियके सत्रह समयप्रमाण आयुके शेष रहने पर पूर्वोक्त आवलिके कालके भीतर प्रथम समयसे लेकर पन्द्रह समयोंमें बढ़ाकर बाँधी हुई पन्द्रह प्रकृतियोंकी स्थितिको जिस क्रमसे बन्ध हुआ था उसी क्रमसे अनन्तानुबन्धी क्रोधमें संक्रमण करनेवाले जीवके अनन्तानुबन्धी क्रोधके पन्द्रह भुजगार समय प्राप्त होते हैं। पुनः सोलहवें समयमें अद्धाक्षयसे अनन्तानुबन्धी क्रोधको ता. प्रतौ-बंधिकोधं इति पाठः Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001410
Book TitleKasaypahudam Part 04
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1956
Total Pages376
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size10 MB
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