SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 24
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ गा० २२] द्विदिविहत्तीए उत्तरपयडिभुजगारसमुक्कित्तणा द्विदिविहत्तीओ होति तो एसो अवट्ठिदविहत्तिओ णाम । * अविहत्तियादो विहत्तियात्रो एसो अवत्तव्वविहत्तिो । ६४. णिस्संतकम्मिओ होदण जदि स संतकम्मिओ होदि तो अवत्तव्व विहत्तिओ होदि वड्डिहोणिअवट्ठाणाणमभावादो। तदभावो वि पुव्वं संतकम्मस्स अभावादो; बिल्लसंतकम्ममवेक्खिय द्विदवड्डिहाणिअवट्ठाणाणं ण तेण विणा संभवो हिदि; विरोहादो । तम्हा ते अवेक्खिय अवत्तव्वं सिद्ध; अण्णहा अवत्तव्वसद्देण वि तस्सावत्तप्पसंगादो। * एदेण अपदेण। ६. एदमट्ठपदं काऊण उवरि भण्णमाणअणियोगद्दाराणं परूवणं कस्सामो । ६७. एत्थ ताव मंदबुद्धिजणाणुग्गहमुच्चारणा वुच्चदे । भुजगारे तेरस अणियोग विभक्तियाँ होती हैं जितनी कि पिछले समयमें थीं तो वह जीव अवस्थितविभक्तिवाला होता है। * जो अविभक्तिकसे पुनः विभक्तिवालाहोता है वह अवक्तव्यविभक्तिवाला जीव है। ६५. जो निःसत्त्वकर्मवाला होकर यदि पुनः सत्कर्मवाला होता है तो वह अवक्तव्यविभक्तिवाला जीव है, क्योंकि इसके वृद्धि, हानि और अवस्थानका अभाव है। वृद्धि, हानि और अवस्थानका अभाव भी पहले सत्तामें स्थित कर्मों के अभावसे होता है: क्योंकि जो वृद्धि, हानि और अवस्थान पहले सत्तामें स्थित कर्मोकी अपेक्षासे पाये जाते थे उनका सत्तामें स्थित कर्मों के बिना पाया जाना सम्भव नहीं है। अन्यथा विरोध आता है। इसलिये उक्त अपेक्षासे अवक्तव्य विकल्प है यह बात सिद्ध हुई, अन्यथा अवक्तव्य शब्दसे भी उसके अवक्तब्यपनेका प्रसंग प्राप्त होता है। अर्थात् पूर्वोक्त प्रकारसे यदि अवक्तव्य भंग न माना जाय तो उसे 'अवक्तव्य' इस शब्दके द्वारा भी नहीं कह सकेंगे। विशेषार्थ-यहाँ स्थितिसत्त्वकी अपेक्षा भुजगार आदिका विचार किया गया है, अतः इसके अनुसार भुजगार आदिके निम्न लक्षण प्राप्त होते हैं-जिस जीवके अनन्तर अतीत समयमें अल्प स्थिति है वह यदि वर्तमान समयमें बन्ध या संक्रमके द्वारा उससे अधिक स्थितिको प्राप्त करता है तो वह भुजगार स्थितिविभक्तिवाला जीव कहा जाता है। जिसके अनन्तर अतीत समयमें अधिक स्थिति है वह यदि स्थितिघात या अधःस्थितिगलना के द्वारा वर्तमान समयमें कम स्थिति कर लेता है तो वह अल्पतर स्थितिविभक्तिवाला जीव कहा जाता है। जिस जीवके स्थितिकी घटाबढ़ी होते हुए भी बन्धके वशसे प्रथमादि समयोंके समान द्वितीयादि समयोंमें स्थिति बनी रहती है वह जीव अवस्थित स्थितिविभक्तिवाला कहा जाता है। तथा जो निःसत्त्वकर्मवाला होकर पुनः स्थितिसत्कर्मको प्राप्त करता है वह अवक्तव्य स्थितिविभक्तिवाला कहा जाता है। प्रकृत अनुयोगद्वारमें इन्हींकी अपेक्षा मोहनीयके अवान्तर भेदोंकी स्थितिका विचार किया गया है। * इस अथंपदके अनुसार। ६६. इस अर्थपदको करके आगे कहे जानेवाले अनुयोगद्वारोंका कथन करते हैं। ६७. अब यहाँ मन्दबुद्धि जनोंपर अनुग्रह करनेके लिये उच्चारणाका कथन करते हैं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001410
Book TitleKasaypahudam Part 04
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1956
Total Pages376
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy