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________________ २६ जयधवला सहिदे कसायपाहुडे मुहुरोण दंसणमोहणीए खविदे अप्पदरकालो जह० अंतोमुहुत्तं होदि' । * उक्कस्सेण वे छावद्विसागरोवमाणि सादिरेयाणि । ६ ४६, तं जहा -- णिस्संतकम्मियमिच्छादिट्टिणा सम्मत्ते गहिदे उवसमसम्मत्तद्धा समयूणमेत्ता अप्पदरकालो होदि । पुणो वेद्गसम्मतं घेत्तृण तेण सम्मत्तेण पढमखावडिं गमिथ पुणो सम्मामिच्छतं पडिवज्जिय तत्थ अंतोमुडुत्तमच्छिय वेदगसम्मतमुवणमिय तेण सम्मत्तेण विदिषछावहिं गमिय पुणो मिच्छत्तं गंतूण पलिदो ० असंखे० भागमे तेण सब्बुकस्सुव्वेरलणकालेण सम्मत्त सम्मामिच्छत्तेसु उव्वेलिदेसु वेछावट्टिसागरोवमाणि पलिदो० असंखे० भागेण सादिरेयाणि सम्मत्त सम्मामिच्छत्ताणमुक्कस्सप्पदरकालो | एवं जवसहाइरियमुत्तमस्सिदृण ओघपरूवणं करिय संपहि उच्चारणमस्सिदुण भुजगारकालपरूवणं कस्सामी । ५०. कालानुगमेण दुविहो णिद्द सो-ओघेण आदेसेण य । ओघेण मिच्छत ० केवचिरं कालादो होदि १ जह० एगसमओ, उक्क ० चत्तारि समया । अप्पदर ० के ० १ जह० एगसमओ, उक्क० तेवट्टिसागरोवमसदं सादिरेयं । अवट्टि० केवचि ० १ जह० एगसमओ, उक्क० अंतोमुडुतं । सोलसक०-णवणोक० भुज० जह० एगसमओ, उक्क० एगुणवीस समया । अप्पदर अवट्ठिदाणं मिच्छत्तभंगो | अनंताणु०चउक्क० अवत्तव्व० जहण्णुक्क० एगसमय | सम्मत्त सम्मामि० भुज० - अवट्टि ० -अवत्तव्त्र • जहण्णुक० एगओ । अप्पद ० देता है तो उसके अल्पतर स्थितिविभक्तिका जघन्यकाल अन्तर्मुहूर्त प्राप्त होता है । * उत्कृष्ट काल साधिक दो छ्यासठ सागर है । $ ४९. उसका खुलासा इस प्रकार है - जिसके सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व कर्मका सम्व नहीं है ऐसे मिथ्यादृष्टि जीवके सम्यक्त्व के ग्रहण करनेपर एक समयक्रम उपशम सम्यक्त्वका काल अल्पतरकाल होता है । पुनः वेदकसम्यक्त्वको ग्रहण करके और उस सम्यक्त्वके साथ प्रथम छयासठ सागर काल बिताकर तदनन्तर सम्यग्मिथ्यात्वको प्राप्त होकर और वहाँ अन्तर्मुहूर्त कालतक रहकर पुनः वेदकसम्यक्त्वको प्राप्त करके और उसके साथ द्वितीय छयासठ सागर काल बिताकर पुनः मिथ्यात्वको प्राप्त करके जब वह पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण सर्वोत्कृष्ट उद्वेलनाकालके द्वारा सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी उद्वेलना कर देता है तब उसके सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका पल्योपमके असंख्यातवें भाग से अधिक दो छयासठ सागर प्रमाण अल्पतर काल होता है । ५०. इस प्रकार यतिवृषभ आचार्य के सूत्र के आश्रयसे ओघका कथन करके अब उच्चारणाके आश्रयसे भुजगारकालका कथन करते हैं - कालानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है - ओघनिर्देश और आदेशनिर्देश | उनमेंसे ओघकी अपेक्षा मिथ्यात्वकी भुजगार स्थितिविभक्तिका कितना काल है ? जघन्यकाल एक समय और उत्कृष्टकाल चार समय है । अल्पतर स्थितिविभक्तिका कितना काल है ? जघन्य काल एक समय और उत्कृष्टकाल साधिक एकसौ त्रेसठ सागर है । अवस्थित स्थितिविभक्ति का कितना काल है ? जघन्यकाल एक समय और उत्कृष्टकाल अन्तर्मुहूर्त है । सोलह कषाय और नौ नोकषायों की भुजगारस्थितिविभक्तिका जघन्यकाल एकसमय और उत्कृष्टकाल उन्नीस समय है । अल्पतर और अवस्थित स्थितिविभक्तियोंका भंग मिथ्यात्व के समान है । अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी अवक्तव्य स्थितिविभक्तिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है । सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व की भुजगार, १ ता० प्रतौ- मुहुत्तो होदि इति पाठः । Jain Education International [ द्विदिविहत्ती ३ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001410
Book TitleKasaypahudam Part 04
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1956
Total Pages376
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size10 MB
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