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________________ गा० २२] द्विदिविहत्तीए उत्तरपयडिभुजगारकालो मिच्छत्तहिदि वंधिय गहिदसम्मत्तस्स पढमसमए अवट्ठिदविहत्तीए कालो एगसमओ होदि, विदियसमए अप्पदरविहत्तीए समुप्पत्तीदो। उवसमसम्मत्तद्धाए दसणतियहिदीए णिसेगाणं विदियविदीए अवडिदाणं गलणाभावादो अवविदकालो अंतोमुहुत्तमेत्तो लब्भइ, सो किण्ण गहिदो ? ण, तिन्हं कम्माणं कम्मढिदिसमएसु अणुसमयं गलमाणेसु हिदीए अवट्ठाणविरोहादो। ण णिसेगाणं डिदित्तमस्थि, दव्वस्स पज्जयभावविरोहादो । णिस्संतकम्मिएण मिच्छाइटिणा सम्मत्ते गहिदे एगसमयमवत्तव्वं होदि, पुव्वमविज्जमाणसम्मत्त-सम्मामिच्छत्तहिदिसंताणमेहि समुप्पत्तीदो । तस्स कालोएगसमओ चेव, विदियसमए अप्पदरसमुप्पत्तोदो। * अप्पदरकम्मंसिओ केवचिरं कालादो होदि ? ६४७. सुगमं । ॐ जहरणेण अंतोमुहत्तं । ६४८. कुदो ? णिस्संतकम्मिएण मिच्छाइटिणा पढमसम्मत्तं घेत्तूण पढमसमए सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताणमवत्तव्वं कादण विदियसमए अप्पदरं करिय सधजहणतोमिथ्यात्वकी स्थितिको बाँधकर जिसने सम्यक्त्वको ग्रहण किया है उसके सम्यक्त्वके ग्रहण करनेके प्रथम समयमें सम्यक्त्वकी अवस्थितविभक्तिका काल एक समय प्राप्त होता है, क्योंकि दूसरे समयमें अल्पतरविभक्ति उत्पन्न हो जाती है। शंका-उपशमसम्यक्त्वके कालमें तीन दर्शनमोहनीयकी स्थितिके निषेक द्वितीय स्थितिमें अवस्थित रहते हैं, अतः उनका गलन नहीं होनेके कारण अवस्थितकाल अन्तर्मुहूर्तप्रमाण प्राप्त होता है, उसे यहाँ क्यों नहीं ग्रहण किया ? समाधान-नहीं, क्योंकि वहाँपर तीनों कोंकी कर्मस्थितिके समयोंके प्रत्येक समयमें गलते रहनेपर स्थितिका अवस्थान माननेमें विरोध आता है। यदि कहा जाय कि निषेकोंको स्थितिपना प्राप्त हो जायगा सो भो बात नहीं है, क्योंकि द्रव्यको पर्यायरूप मानने में विरोध आता है । अर्थात् निषेक द्रव्य हैं और उनका एक समयतक कर्मरूप रहना आदि पर्याय है । चूँकि द्रव्यसे पर्याय कथाश्चित् भिन्न है, अतः पर्यायके विचारमें द्रव्यको स्थान नहीं । जिसके सम्यक्त्वकर्मकी सत्ता नहीं है मिथ्यादृष्टि जीव जब सम्यक्त्वको ग्रहण करता है तब उसके सम्यक्त्वके ग्रहण करनेके प्रथम समयमें एक समयतक अवक्तव्य स्थितिविभक्ति होती है, क्योंकि पहले अविद्यमान सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वके स्थितिसत्त्वकी इनके उत्पत्ति देखी जाती है। इस अवक्तव्य स्थितिविभक्तिका काल एक समय ही है, क्योंकि दूसरे समयमें अल्पतर स्थितिविभक्ति उत्पन्न हो जाती है। * सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वके अल्पतर स्थितिविभक्तिसत्कर्मवाले जीवका कितना काल है ? ६ ४७. यह सूत्र सुगम है। * जघन्य काल अन्तर्मुहृत है। ६४८. क्योंकि जिसके सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका सत्त्व नहीं है ऐसा मिथ्यादृष्टि जीव जब प्रथमोपशमसम्यक्त्वको ग्रहण करता है तब उसके सम्यक्त्वके ग्रहण करनेके प्रथम समयमें सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी अवक्तव्य स्थितिविभक्ति होती है। तथा दूसरे समयसे अल्पतर स्थितिविभक्तिको प्रारम्भ करके अति लघु अन्तर्मुहूर्त कालके द्वारा वह यदि दर्शमोहनीयका क्षय कर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001410
Book TitleKasaypahudam Part 04
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1956
Total Pages376
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size10 MB
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