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________________ २४ minara ---mirmirror-~ -warniver जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [हिदिविहत्ती ३ ४४. कुदो ? अणंताणु०चउक्कं णिस्संतीकयसम्माइट्ठिणा मिच्छत्ते सासणसम्मत्ते वा पडिवण्णे तस्स पढमसमए चेव अणंताणु०चउकस्स हिदिसंतुप्पत्तीदो। कुदो असंतस्स अणंताणु०चउक्करण उप्पत्ती ? ण, मिच्छत्तोदरण कम्मइयवग्गणक्खंघाणमणंताणु० च उक्कसरूवेण परिणमणं पडि विरोहाभावादो सासणे कुदो तेसिं संतुप्पत्ती ? सासणपरिणामादो । को सासणपरिणामो ? सम्मत्तस्स अमावो तचत्थेसु असद्दहणं । सो केण जणिदो ? अणंताणुबंधीणमुदएण। अणंताणुबंधीणमुदओ कुदो जायदे । परिणामपच्चएण। * सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताणं भुजगार-अवहिद-अवत्तव्वकम्मसियो केवचिरं कालादो होदि ? ६४५. सुगर्म । * जहण्णुकस्सेण एगसमत्रो। ४६. तं जहा-पुन्वुप्पण्णसम्मत्तसंतकम्ममिच्छाइटिणा सम्मत्तसंतकम्मस्सुवरि दुसमयुत्तरादिमिच्छत्तहिदि बंधिय गहिदसम्मत्तस्स पढमसमए भुजगारो होदि । समयुत्तर ६४४. क्योंकि जिस सम्यग्दृष्टि जीवने अनन्तानुबन्धी चतुष्कको निःसत्त्व कर दिया है वह जब मिथ्यात्व या सासादनसम्यक्त्वको प्राप्त होता है तब मिथ्यात्व या सासादनके प्रथम समयमें ही अनन्तानुबन्धी चतुष्कका स्थितिसत्त्व पाया जाता है। शंका--असद्रूप अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी मिथ्यात्वमें उत्पत्ति कैसे हो जाती है ? समाधान--नहीं, क्योंकि मिथ्यात्वके उदयसे कामणवर्गणास्कन्धोंके अनन्तानुबन्धी चतुष्करूपसे परिणमन करने में कोई विरोध नहीं आता है। शंका--सासादनमें उनकी सत्तारूपसे उत्पत्ति कैसे हो जाती है ? समाधान--सासादनरूप परिणामोंसे । शंका-सासादनरूप परिणाम किसे कहते हैं ? समाधान-तत्त्वार्थों में अश्रद्धानलक्षण सम्यक्त्वके अभावको सासादन रूप परिणाम कहते हैं। शंका-वह सासादनरूप परिणाम किस कारणसे उत्पन्न होता है ? समाधान-अनन्तानुबन्धीचतुष्कके उदयसे होता है। शंका--अनन्तानुबन्धीचतुष्कका उदय किस कारण से होता है ? समाधान-परिणामविशेषके कारण अनन्तानुबन्धीचतुष्कका उदय होता है। * सम्यक्त्व और सम्याग्मिथ्यात्वके भुजगार, अवस्थित और अवक्तव्य स्थितिविभक्तिवाशे जीवका कितना काल है ? ६४५. यह सूत्र सुगम है। * जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। ६ ४६. उसका खुलासा इस प्रकार है-जिसने पहले सम्यक्त्वसत्कर्मको उत्पन्न कर लिया है ऐसा कोई एक मिथ्यादृष्टि जीव जब सम्यक्त्वसत्कर्मके ऊपर दो समय अधिक इत्यादिरूपसे मिथ्यात्वकी स्थितिको बाँधकर सम्यक्त्वको ग्रहण करता है तब उसके सम्यक्त्वके ग्रहण करनेके प्रथम समय में सम्यत्वकी भुजगारस्थितिविभक्ति होती है। तथा एक समय अधिक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001410
Book TitleKasaypahudam Part 04
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1956
Total Pages376
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size10 MB
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