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________________ ३२४ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे । [हिदिविहत्ती ३ ॐ अपच्छिमेण उव्वेल्लणकंडएण च ऊणाश्रो एत्तियाणि हाणाणि । ६६१३. अपच्छिमेणुव्बेल्लणहिदिकंडएणूणत्तं किमहं वुच्चदे ? ण, चरिमुव्वेल्लणकंडयचरिमफालीमेत्तहिदीणमक्कमेण पदंताणं ठाणवियप्पाणुवलंभादो। जदि एवं, तो सव्वुव्वेल्लणखंडयाणं चरिमफालीओ अक्कमेण पदिदाओ त्ति सव्वत्थ सांतरट्ठाणुप्पत्ती पावदे ? ण च एवं, पलिदोवमस्स असंखे०भागमेत्तट्ठाणप्पसंगादो ? ण एस दोसो, डिदिखंडयायामाणं णियमाभावेण उव्वेल्लणपारंभट्ठाणम्स णियमाभावेणविसोहिवसेण पदमाणाणं द्विदिखंडयायामाणं णियमाभावेण च णाणाजीवे अस्सिदूण सेसकंडएसु णिरंतरटाणुवलंभादो। ण च चरिमफालीए णिरंतरकमेण लब्भंति, सव्वजीवाणं सव्वजहण्णचरिमफालीए एगपमाणत्तादो। एत्तियाणि हाणाणि सम्मत्तसम्मामिच्छत्ताणं होति त्ति घेत्तव्वं । * जहा मिच्छत्तस्स तहा सेसाणं कम्माणं । ६ ६१४. सोलसकसाय-णवणोकसायाणं मिच्छत्तस्सेव ह्राणपरूवणा कायव्वा, विसेसाभावादो। संपहि एवं विहाणेणुप्पण्णहिदिसंतकम्मट्ठाणाणं थोवबहुत्त साहणपदुप्पायणमुत्तरसुत्तं भणदि ® अभवसिद्धियपाओग्गे जेसिं कम्मंसाणमग्गहिदिसंतकम्मं तुल्लं 8 वे स्थान अन्तिम उद्वेलनाकाण्डकसे कम हैं । इतने स्थान होते हैं। ६६१३. शंका-यहाँ अन्तिम उद्वेलना स्थितिकाण्डकसे कम किसलिये कहा ? समाधान नहीं, क्योंकि अन्तिम उद्वेलनाकाण्डककी अन्तिम फालिप्रमाण स्थितियोंका युगपत् पतन होता है, इसलिये वहाँ स्थानविकल्प नहीं प्राप्त होते ।। शंका-यदि एसा है तो सब उद्वेलनाकाण्डकोंकी अन्तिम फालियोंका अक्रमसे पतन होता है, अतः सर्वत्र सान्तर स्थानोंकी उत्पत्ति प्राप्त होती है। परन्तु ऐसा है नहीं, क्योंकि ऐसा मानने पर पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण स्थानोंका प्रसंग प्राप्त होता है। समाधान—यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि स्थितिकाण्डकोंके आयामोंका नियम न होनेसे, उद्वेलनाके प्रारम्भके स्थानका नियम न होनेसे और विशुद्धिके वशसे पतनको प्राप्त होनेवाले स्थितिकाण्डकायामोंका नियम न होनेसे नाना जीवोंकी अपेक्षा शेष काण्डकोंमें निरन्तर स्थान पाये जाते हैं। परन्तु अन्तिम फालिके स्थान निरन्तर क्रमसे नहीं प्राप्त होते, क्योंकि सब जीवोंके सबसे जघन्य अन्तिम फालिका प्रमाण समान है। अतः इतने स्थान सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वके होते हैं ऐसा ग्रहण करना चाहिये। * जिस प्रकार मिथ्यात्वके स्थितिसत्कर्मस्थान कहे उसी प्रकार शेष कर्मो के कहने चाहिये। ६६१४. सोलह कषाय और नौ नोकषायोंकी मिथ्यात्वके समान स्थानप्ररूपणा करनी चाहिए, क्योंकि उसमें इससे कोई विशेषता नहीं है। अब इस प्रकारसे उत्पन्न हुए स्थिति, सत्कर्मस्थानोंके अल्पबहुत्वकी सिद्धिका प्रतिपादन करनेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं * अभव्योंके योग्य जिन कर्मों का उत्कृष्ट स्थितिसत्कर्म समान होता हुआ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001410
Book TitleKasaypahudam Part 04
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1956
Total Pages376
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size10 MB
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