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________________ ३२५ गा० २२] द्विदिविहत्तीए द्विदिसंतकम्मट्ठाणपरूवणा जहण्णगं द्विदिसंतकम्मं थोवं तेसि कम्मंसाणं हाणाणि बहुआणि । ६१५. अभवसिद्धियपाओग्गे त्ति भणिदे मिच्छादिहिपाओग्गे त्ति घेत्तव्वं । कधं मिच्छादिहिस्स अभव्वववएसो ? ण, उक्कस्सद्विदिअणुभागबंधे पडुच्च समाणतणेण अभव्वववएसं पडि विरोहाभावादो। जेसिं कम्माणमुक्कस्सट्ठिदिसंतकम्मं सरिसं होण जहण्णहिदिसंतकम्मं सरिसं ण होदि किंतु थोवं तेसिं कम्मंसाणं हाणाणि बहुआणि, हेडा बहुआणं हाणाणमुवलंभादो । जेसिं पुण कम्मंसाणं द्विदीओ उवरि बहुआओ हेट्ठा जहण्णहिदी जदि वि थोवा समा वा होदि तो वि तेसिं हाणाणि बहुआणि होति, हेलोवरि लद्धहाणेहि अब्भहियत्तादो । एदस्सुदाहरणं बुच्चदे । तं जहा—एगो एइंदिओ कसायहिदि सागरोवमचत्तारिसत्तभागमेत्तं पलिदो० असंखे०भागेणूणं बंधमाणो अच्छिदो तं बंधावलियादीदं तेण णवणोकसायाणमुवरि संकामिदे कसाय-णोकसायाणं हिदिसंतकम्महाणाणि सरिसाणि होति । पुणो बंधगद्धाभेदेण सत्तणोकसायट्ठिदिबंधहाणाणं बहुत्तं वत्तइस्सामो । तं जहा-एइंदिएसु कसायाणं जहण्णहिदिसंतकम्मे संते पुरिसवेदे हस्स-रदीणं तस्समए जुगवं बंधपारंभो कायव्वो। पारद्धपढमसमयप्पहुडि हस्स-रदिबंधगद्धाए संखे०भागे अदिक्कते पुरिसवेदबंधगद्धा थक्कदि । तत्थक्काणंतरसमए इत्थिवेदबंधगद्धापारंभो कायव्वो। एवं पारभिय पुणो इत्थिवेद-हस्स-रदीओ बंधमाणो जघन्य स्थितिसत्कर्म अल्प होता है उन कर्मों के स्थान बहुत होते हैं। ६१५. सूत्र में 'अभवसिद्धिपाओग्गे' ऐसा कहनेपर उसका अर्थ मिथ्यादृष्टिके योग्य ऐसा लेना चाहिए। शंका-मिथ्यादृष्टिको अभव्य कहना कैसे बनता है ? समाधान नहीं क्योंकि उत्कृष्ट स्थिति और उत्कृष्ट अनुभागकी अपेक्षा समानता होनेसे मिथ्यादृष्टिको अभव्य कहने में कोई विरोध नहीं आता है। जिन कर्मोंका उत्कृष्ट स्थितिसत्कर्म समान होता हुआ जघन्य स्थितिसत्कर्म समान नहीं होता है किन्तु थोड़ा होता है उन कर्मों के स्थान बहुत होते हैं, क्योंकि नीचे बहुत स्थान पाये जाते हैं। पर जिन कर्मोंकी स्थितियाँ ऊपर बहुत होती हैं और नीचे जघन्य स्थिति यद्यपि स्तोक या समान होती है तो भी उनके स्थान बहुत होते हैं। क्योंकि नीचे और ऊपर प्राप्त हुए स्थानोंकी अपेक्षा वे अधिक हो जाते हैं। अब इसका उदाहरण कहते हैं। जो इसप्रकार है-कोई एकेन्द्रिय जीव कषायकी स्थितिको एक सागरके सात भागोंमेंसे पल्यका असंख्यातवाँ भागकम चार भागप्रमाण बाँधकर स्थित है। उसके बन्धावलिसे रहित उस स्थितिके नौ नोकषायोंके ऊपर संक्रान्त करनेपर कषाय और नोकषायोंके स्थितिसत्कर्म समान होते हैं। अब बन्धकालके भेदसे सात नोकषायोंके स्थितिबन्धस्थानोंके बहुत्वको बतलाते हैं। जो इसप्रकार है-एकेन्द्रियोंमें कषायोंकी जघन्य स्थितिसत्कर्मके रहते हुए पुरुषवेद और हास्य रतिके बन्धका प्रारम्भ उसी समय एक साथ करना चाहिए। पुनः प्रारम्भ किये गये पहले समयसे लेकर हास्य और रतिके बन्धकालके संख्यातवें भागके व्यतीत हो जानेपर पुरुषवेदका बन्धकाल समाप्त होता है। पुनः पुरुषवेदके बन्धकालके समाप्त होनेके अनन्तर समयमें स्त्रीवेदके बन्धकालका प्रारम्भ करना चाहिये । इसप्रकार प्रारम्भ करके पुनः स्त्रीवेद और हास्य-रतिका बन्ध करता हुआ वह जीव पूर्वकालसे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001410
Book TitleKasaypahudam Part 04
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1956
Total Pages376
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size10 MB
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