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________________ ૩૨૬ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [हिदिविहत्ती ३ पुविल्लद्धाणादो संखे०गुणमद्धाणं गच्छदि । एवं गंतूण पुणो इत्थिवेदबंधो थक्कदि । तत्थक्काणंतरसमए णqसयवेदबंधस्स पारंभो। तदो णqसयवेदेण सह हस्स-रदीओ पुव्वागदंतोमुहुत्तादो संखेजगुणमंतोमुहुत्तं बंधदि । तदो हस्स-रदीणं पि बंधगद्धा थक्कदि। पुणो अरदि-सोगाणं बंधपारंभो होदि । एवं होदूण णवंसयवेदेण सह अरदि-सोगे बंधमाणो हेट्ठिमअद्धाणादो संखे०गुणमद्धाणमुवरि गंतूण दोण्हं पि बंधगद्धाओ जुगवं समप्पंति । तेण सव्वत्थोवा पुरिस०बंधगद्धा २ । इत्थि०बंधगद्धा संखे०गुणा ८ । हस्स-रदिबंधगद्धा संखेगुणा ३२ । अरदि-सोगबंधगद्धा संखे०गुणा १२८ । णस०बंधगद्धा विसेसाहिया १५० । केत्तियमेत्तेण ? हस्स-रदिबंधगद्धाए संखेजाभागमेत्तेण । एवं जेण कारणेण सत्तणोकसायट्ठिदिबंधगद्धाओ विसरिसत्तेण द्विदाओ तेणेदासिं हिदिवंधट्टाणाणि सरिसाणि ण होति त्ति घेत्तव्वं । * इमाणि अएणाणि अप्पाबहुअस्स साहणाणि कायव्वाणि । ६६१६. पुव्वमेकेण पयारेण अप्पाबहुअसाहणं काऊण संपहि अण्णेण पयारेण तस्स साहणाणि भणामि त्ति सिस्ससंबोहणा एदेण कदा । 8 तं जहा-सव्वत्थोवा चरित्तमोहणीयक्खवयस्स अणियट्टिद्धा। ६१७. उवरि भण्णमाणअद्धाहिंतो एसा चरित्तमोहणीयक्खवयस्स संख्यातगुणे कालतक बन्ध करता जाता है। इसप्रकार जाकर पुनः स्त्रीवेदका बन्ध समाप्त होता है। पुनः स्त्रीवेदके बन्धके समाप्त होनेके अनन्तर समयमें नपुंसकवेदके बन्धका प्रारम्भ करता है। तदनन्तर नपुंसकवेदके साथ हास्य और रतिको पहलेसे आये हुए अन्तर्मुहूर्तसे संख्यातगुणे अन्तर्मुहूर्तकालतक बांधता है। तदनन्तर हास्य और रतिका भी बन्धकाल समाप्त होता है। पुनः अरति और शोकका बन्ध प्रारम्भ होकर नपुंसकवेदके साथ अरति और शोकका बन्ध करता हुआ नीचेके कालसे संख्यातगुणा काल ऊपर जाकर दोनोंके ही बन्धकालोंको एक साथ समाप्त करता है। अतः पुरुषवेदका बन्धकाल सबसे थोड़ा २ है। स्त्रीवेदका बन्धकाल संख्यातगुणा २४४%3D८ है। हास्य और रतिका बन्धकाल संख्यातगुणा ८४४=३२ है। अरति और शोकका बन्धकाल संख्यातगुणा ३२४४% १२८ है। नपुंसकवेदका बन्धकाल विशेष अधिक १२८+ २२=१५० है। विशेषका प्रमाण क्या है। हास्य और रतिके बन्धकालका संख्यात बहभाग विशेषका प्रमाण है १३२-(२+८)(३२ - १०)=२२ । इस प्रकार चूँकि सात नोकषायोंके स्थितिबन्धकाल विसदृशरूपसे स्थित हैं इसलिए इनके स्थितिबन्धस्थान समान नहीं होते हैं ऐसा यहाँ ग्रहण करना चाहिये। 8 अब अल्पबहुत्वके साधनके ये अन्य प्रकार करने चाहिए। ३६१६. पहले एक प्रकारसे अल्पबहुस्वकी सिद्धि की है अब अन्य प्रकारसे उसकी सिद्धिका कथन करते हैं । इस प्रकार इस सूत्रके द्वारा शिष्यको संबोधन किया है। अब उन्हीं अन्य प्रकारोंको बतलाते हैं-चारित्रमोहकी क्षपणा करनेवाले जीवके अनिवृत्तिकाल सबसे थोड़ा है। ६६१७. आगे कहनेवाले कालोंसे यह चारित्रमोहनीयकी क्षपणा करनेवाले जीवके अनि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001410
Book TitleKasaypahudam Part 04
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1956
Total Pages376
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size10 MB
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