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________________ गा० २२] द्विदिविहत्तीए द्विदिसंतकम्मट्ठाणपरूवणा ३२३ त्ति तेसिं पडिसेहो एदेण परूवदो त्ति भावत्थो । ताए पदिदाए एई दिएसु लट्ठाणेहिंतो असंखे गुणमंतरिय अपुणरुत्तट्ठाणमुप्पजदि तत्तो पाए अंतोमुहुत्तमेत्ताणि हिदिसंतकम्महाणाणि लभंति, अघट्टिदिगलणं मोत्तूण अण्णत्थ तदुवलंभाभावादो । जत्तो पाए एइंदियहिदिसंतकम्मस्स हेह्रदो जादं तत्तो पाए जाव एगा ट्ठिदी दुसमयकाला जादा ति ताव फालिट्ठाणेहि विणा अधढिदिगलणाए सांतरणिरंतरहाणाणि अंतोमुहुत्त मेत्ताणि लब्भंति ति भणिदं होदि । * सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताणं हिदिसंतकम्मट्ठाणाणि सत्तरिसागरोवम. कोडाकोडीअो अंतोमुहुत्त जाओ । $ ६१२. सम्मत्त-सम्ममिच्छत्ताणं त्ति णिद्दे सो सेसकम्मपडिसेहफलो । एदासिं दोण्हं पयडीणं हिदिसंतकम्मट्ठाणाणि केतियाणि त्ति भणिदे अंतोमुहुत्तणाओ सत्तरिसागरोवमकोडाकोडोओ त्ति भणिदं । संपुण्णाओ किण्ण होंति ? ण, अंतोमुहुत्तूणुकस्सद्विदीए विणा उवरिमट्ठिदिवियप्पेहि सम्मत्ताणहणाभावादो । मिच्छत्तणिरुंभणं कादूण सण्णियासम्मि जधा सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताणं अंतोमुहुत्तूणसत्तरिसागरोवमकोडाकोडिमेत्तहिदिहाणाणं परूवणा कदा तधा एत्थ वि कायव्वा, विसेसाभावादो। केवलेण अंतोमुहुत्तेणेव ऊणाओ ण होति त्ति जाणावणट्ठमुत्तरसुत्तं भणदिस्थान होते हैं, अतः 'जम्हि ढिदिसंत ' इत्यादि पदके द्वारा उनका निषेध किया यह इसका भावार्थ है। उस द्विचरमफालिके पतन हो जाने पर एकेन्द्रियोंमें प्राप्त होनेवाले स्थानोंसे असंख्यातगुणा अन्तर देकर अपुनरुक्त स्थान प्राप्त होता है। वहाँ से लेकर अन्तर्मुहूर्तप्रमाण स्थितिसत्कर्म प्राप्त होते हैं, क्योंकि अधःस्थितिगलनाको छोड़कर अन्यत्र उनकी प्राप्ति नहीं होती है। इसका तात्पर्य यह है कि जहाँसे एकेन्द्रियस्थितिसत्कर्मके नीचे स्थान हो गये वहाँसे लेकर दो समय कालप्रमाण एक स्थितिके प्राप्त होने तक फालिस्थानोंके बिना अधःस्थितिगलनारूपसे सान्तर-निरन्तर अन्तर्मुहूर्तप्रमाण स्थान प्राप्त होते हैं। * सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वके स्थितिसत्कर्मस्थान अन्तर्मुहूर्तकम सत्तर कोडाकोड़ीसागरप्रमाण होते हैं । $ ६१२. सूत्रमें 'सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताणं' इस प्रकारके निर्देशका फल शेष कर्मोंका निषेध करना है। इन दोनों प्रकृतियोंके स्थितिसत्कर्म कितने हैं ऐसा कहने पर अन्तर्मुहूर्तकम सत्तर कोड़ाकोड़ीसागर प्रमाण हैं ऐसा कहा है। शंका-पूरे सत्तर कोडाकोड़ीसागरप्रमाण क्यों नहीं होते ? समाधान नहीं, क्योंकि अन्तर्मुहूर्तकम उत्कृष्ट स्थितिको छोड़कर ऊपरके स्थितिविकल्पोंके साथ सम्यक्त्वका ग्रहण नहीं होता। मिथ्यात्वको रोककर सन्निकर्षानुगममें जिस प्रकार सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वके अन्तर्मुहूर्तकम सत्तर कोडाकोड़ीसागरप्रमाण स्थितिस्थानोंका कथन किया उसी प्रकार यहाँ भी करना चाहिये, क्योंकि दोनों कथनोंमें परस्पर कोई विशेषता नहीं है। केवल अन्तर्मुहूर्त ही कम नहीं होते हैं इस बातका ज्ञान करानेके लिये आगेका सूत्र कहते हैं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001410
Book TitleKasaypahudam Part 04
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1956
Total Pages376
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size10 MB
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