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जयधवलास हिदे कसायपाहुडे
[ द्विदिविहत्ती ३
७०. सणि० पंचिंदियभंगो। एवमाहारीणं । णवरि सण्णि० मिच्छ०-सोलसक०णणोक० भुज० उक्क० वे सत्तारस समया । असण्णि० मिच्छत्त-सम्मत्त सम्मामि०सोलसक० -णवणोक० अप्पदर ज० एगसमओ, उक्क० पलिदो ० असंखे० भागो | सेस ० ओरालियमस्स० भंगो ।
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एवं कालानुगमो समत्तो ।
* अंतरं ।
७१. सुगममेदं, अहियार संभालणफलत्तादो ।
* मिच्छुत्तस्स भुजगार - श्रवद्विदकम्मंसियस्स अंतरं जहर णेण एगसमओ । १ ७२. कुदो ? भुजगार अवद्विदविहत्तीओ एगसमयं काढूण विदियसमए अप्पदरं after after भुजगार अवहिदेसु एगसमय मे तंतरुवलंभादो ।
* उक्कस्सेण तेवट्टिसागरोवमसदं सादिरेयं ।
१ ७३. तं जहा - 1 - तिरिक्खेसु मणुस्सेसु वा भुजगार अवहिदाणमादि काढूण पुणो तत्थेव तोमुत्तकालमप्पदरेणतरिय तिपलिदोव मिएसुप्पजिय तेवट्टिसागरोवमसदं भमिय मणुस्सेसुप्पजिय अंतोमुहुत्ते गदे संकिलेस पूरेण भुज० - अबट्ठि ० कदेसु लद्वमंतरं होदि ।
$ ७०. संज्ञी जीवोंके पंचेन्द्रियों के समान भंग है । इसी प्रकार आहारक जीवों के जानना चाहिए । किन्तु इतनी विशेषता है कि संज्ञियोंमें मिथ्यात्व, सोलह कषाय और नौ नोकपायोंकी भुजगार स्थितिविभक्तिका उत्कृष्टकाल मिथ्यात्वकी अपेक्षा दो समय और शेपकी अपेक्षा सत्रह समय है । असंज्ञियोंमें मिथ्यात्व, सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व, सोलह कपाय और नौ नोकपायों की अल्पतर स्थितिविभक्तिका जघन्यकाल एक समय और उत्कृष्टकाल पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण है । तथा शेष भंग श्रदारिकमिश्रकाययोगियोंके समान है ।
इस प्रकार कालानुगम समाप्त हुआ ।
* आगे अन्तरानुगमका अधिकार है ।
७१. यह सूत्र सुगम है, क्योंकि अधिकारकी संम्हाल करना इसका फल है । * मिथ्यात्वकी भुजगार और अवस्थित स्थितिविभक्तिवाले जीवका जघन्य अन्तरकाल एक समय है ।
९७२. क्योंकि जो कोई जीव भुजगार और अवस्थित स्थितिविभक्तियोंको एक समय तक करके और दूसरे समय में अल्पतर स्थितिविभक्ति करके यदि तीसरे समय में पुनः भुजगार और अवस्थित विभक्तियाँ करते हैं तो उनके भुजगार और अवस्थित स्थितिविभक्तियोंका केवल एक समय अन्तर पाया जाता है।
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* उत्कृष्ट अन्तरकाल साधिक एकसौ त्रेसठ सागर है ।
5 ०३. उसका खुलासा इस प्रकार है- जिन्होंने तिर्यंच और मनुष्यों में उत्पन्न होकर भुजगार और अतिस्थितिविभक्तिका प्रारम्भ किया । पुनः वहीं पर अन्तर्मुहूर्त कालतक अल्पतर स्थितिविभक्तिसे उन्हें अन्तरित किया । पुनः वे तीन पल्यकी आयुवाले जीवोंमें उत्पन्न होकर और एकसौ सठ सागर कालतक परिभ्रमण करके मनुष्योंमें उत्पन्न हुए और वहाँ पर उन्होंने अन्तर्मुहूर्त काल के बाद संक्लेशकी पूर्ति करके भुजगार और अवस्थित विभक्तियोंको किया । इस प्रकार भुजगार और अवस्थित विभक्तियोंका उत्कृष्ट अन्तर साधिक एक्सौ त्रेसठ सागर प्राप्त होता है ।
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