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________________ गा० २२] द्विदिविहत्तीए उत्तरपयडिभुजगारकालो - 5६८. किण्ह-णील-काउ० मिच्छत्त० भुज०-अवहि ओघं । अप्पद० ज० एगस०, उक्क० तेत्तीस-सत्तारस-सत्तसागरोवमाणि देसूणाणि । सोलसक०-णवणोक० भुज०अवहि० ओघं।. अप्प० मिच्छत्तभंगो। अणंताणु० चउक्क० अवत्तव्व० जहण्णुक्क० एगस० । सम्मत्त-सम्मामि० भुज०-अवहि०-अवत्तव्वं ओघं। अप्प० ज० एगस०, उक्क० तेत्तीस-सत्तारस-सत्तसारोव० देसूणाणि । तेउ० सोहम्मभंगो। पम्म० सहस्सारभंगो । सुक्क० आणदभंगो। णवरि अप्प० तेत्तीसं सागरो० सादिरेयाणि । ६६. अभव० छब्बीस. मदि०भंगो। सम्माइटि. आभिणिभंगो। खइयसम्मा० एक्कवीसपय० अप्पद० ज० अंतोमुहत्तं, उक्क० तेत्तीसं सागरो० सादिरेयाणि । वेदग० मिच्छत्त-सम्मामिच्छत्त-अणंताणु०चउक्क० ओहि भंगो । णवरि उक० छावहिसागरो० देसूणाणि । सम्मत्त बारसक०-णवणोक० अप्प० ज० अंतोमु०, उक्क० छावट्टिसागरोवमाणि । सासण० सव्वपयडि ० अप्प० ज० एगस०, उक्क० छ आवलियाओ। मिच्छाइहि० मदिअण्णाणिभंगो। यह ओघके समान घटित कर लेना चाहिये। किन्तु इन दो प्रकृतियोंकी अल्पतर स्थितिके जघन्य कालमें कुछ विशेषता है । बात यह है कि उद्वेलनाकी अपेक्षा इनकी अल्पतर स्थितिका जघन्य काल एक समय भी पाया जाता है अतः यहाँ अल्पतर स्थितिका जघन्य काल एक समय कहा । शेष कथन सुगम है। तथा इसके आगे अन्य मार्गणाओंमें जो कालका निर्देश किया है उसका अनुगम पूर्व कथनसे हो जाता है, इसलिये पृथक् खुलासा नहीं किया। 5६८. कृष्ण, नील और कापोत लेश्यावाले जीवोंमें मिथ्यात्वकी भुजगार और अवस्थित स्थितिविभक्तियोंका काल ओधके समान है। अल्पतर स्थितिविभक्तिका जघन्यकाल एक समय और उत्कृष्टकाल क्रमसे कुछ कम तेतीस, कुछ कम सत्रह और कुछ कम सात सागरप्रमाण है। सोलह कषाय और नौ नोकषायोंकी भुजगार और अवस्थित स्थितिविभक्तिका काल ओघके समान है। तथा अल्पतर स्थितिविभक्तिका भंग मिथ्यात्वके समान है। अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी अवक्तव्य स्थितिविभक्तिका जघन्य और उत्कृष्टकाल एक समय है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी भुजगार, अवस्थित और अवक्तव्य स्थितिविभक्तिका काल ओघके समान है। अल्पतर स्थितिविभक्तिका जघन्यकाल एक समय और उत्कृष्टकाल क्रमसे कुछ कम तेतीस, कुछ कम सत्रह और कुछ कम सात सागर है । पीतलेश्यावाले जीवोंके सौधर्मके समान भंग है । पद्मलेश्यावालोंके सहस्त्रारके समान भंग है। और शुक्ललेश्यावालोंके आनतकल्पके समान भंग है। किन्तु इतनी विशेषता है कि शुक्ललेश्यामें अल्पतर स्थितिविभक्तिका उत्कृष्टकाल साधिक तेतीस सागर है। 5६९. अभव्योंमें छब्बीस प्रकृतियोंकाभंग मत्यज्ञानियों के समान है। सम्यग्दृष्टियोंके आभिनिबोधिकज्ञानियोंके के समान भंग है। क्षायिकसम्यग्दृष्टियोंमें इक्कीस प्रकृतियोंकी अल्पतर स्थितिविभक्तिका जघन्यकाल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्टकाल साधिक तेतीस सागर है। वेदकसम्यग्दृष्टियोंमें मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धीचतुष्कका भंग अवधिज्ञानियोंके समान है। किन्तु इतनी विशेषता है कि अल्पतर स्थितिविभक्तिका उत्कृष्ट काल कुछ कम छयासठ सागर है। सम्यक्त्व, बारह कषाय और नौ नोकषायोंकी अल्पतर स्थितिविभक्तिका जघन्यकाल अन्तर्महूर्त और उत्कृष्ट काल छयासठ सागर है। सासादनसम्यग्दृष्टियोंमें सब प्रकृतियोंकी अल्पतर स्थितिविभक्तिका जघन्यकाल एक समय और उत्कृष्टकाल छह आवली है। मिथ्याष्टियोंके मत्यज्ञानियोंके समान भंग है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001410
Book TitleKasaypahudam Part 04
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1956
Total Pages376
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size10 MB
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