SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 61
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे द्विदिविहत्ती ३ 5६७. धक्खु० मिच्छत्त-सोलसक०-णवणोक० भुज०-अवहि० अणंताणु०चउक्क०' अवत्तव्व० ओघं । अप्प० ज० एगस०, उक्क० तेवहिसागरोवमसदं सादिरेयं । सम्मत्त-सम्मामि० भुज०-अवहि-अवत्तव्यमोघं । अप्प० ज० एगस०, उक्क० वे छावहिसागरो० सादिरेयाणि । ओहिदंस० ओहिणाणिभंगो। ही पाई जाती है अतः उक्त तीनों अज्ञानों में इन दो प्रकृतियोंकी अल्पतर स्थितिका उत्कृष्टकाल पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण कहा। आभिनिबोधिकज्ञान आदि सम्यग्ज्ञानों में केवल अल्पतर स्थिति ही पाई जाती है। किन्तु मनःपर्ययज्ञानको छोड़कर इनका जघन्यकाल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्टकाल साधिक छयासठ सागर है इसलिये इनमें सब प्रकृतियोंकी अल्पतर स्थितिका जघन्यकाल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्टकाल साधिक छयासठ सागर कहा। किन्तु अनन्तानुबन्धी चतुष्क इसका अपवाद है। बात यह है कि वेदक सम्यक्त्वके साथ अनन्तानुबन्धीका सत्त्व कुछ कम छयासठ सागर तक हा पाया जाता है इसलिये इसकी अल्पतरस्थितिका उत्कृष्टकाल कुछ कम छयासठ सागर कहा। तथा मनःपर्ययज्ञानका जघन्यकाल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्टकाल कुछ कम पूर्वकोटि वर्ष प्रमाण है, अतः इसमें सब प्रकृतियोंकी अल्पतर स्थितिका जघन्यकाल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्टकाल कुछ कम पूर्वकोटि वर्ष प्रमाण कहा। मनःपर्ययज्ञानके समान संयत आदि मार्गणाओंमें भी जानना चाहिये, क्योंकि इनका जघन्य और उत्कृष्टकाल मनःपर्ययज्ञानके समान है। इतनी विशेषता है कि सामायिक और छेदोपस्थानाका जघन्यकाल एक समय भी है जो कि उपशान्तमोहसे च्युत हुए जीवके ही सम्भव है, क्योंकि ऐसा जाव एक समय तक अनिवृत्तिकरण गुणस्थानमें रहा और मरकर यदि देव हो जाता है तो उसके सामायिक और छेदोपस्थापना संयमका जघन्यकाल एक समय पाया जाता है। पर यहाँ २४ प्रकृतियोंकी सत्ता ही सम्भव है, अत: २४ प्रकृतियोंकी अल्पतर स्थितिका जघन्यकाल एक समय कहा। असंयत मार्गणामें और सब काल तो ओघके समान बन जाता है किन्तु सब प्रकृतियोंकी अल्पतरस्थितिका उत्कृष्टकाल साधिक तेतीस सागर तथा सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी अल्पतर स्थितिका जघन्यकाल एक समय प्राप्त होता है। बात यह है कि अविरतसम्यग्दृष्टिका उत्कृष्टकाल कुछ कम एक पूर्वकोटि अधिक तेतीस सागर है, अत: असंयममें सब प्रकृतियोंकी अल्पतर स्थितिका उत्कृष्टकाल उक्त प्रमाण कहा। तथा यहाँ कृतकृत्यवेदककी अपेक्षा सम्यक्त्वकी अल्पतर स्थितिका जघन्यकाल एक समय प्राप्त होता है। ६७. चक्षुदर्शनवाले जीवोंमें मिथ्यात्व, सोलह कषाय और नौ नोकषायोंकी भुजगार और अवस्थित स्थितिविभक्तिका तथा अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी अवक्तव्य स्थितिविभक्तिका काल अोधके समान है। अल्पतर स्थितिविभक्तिका जघन्यकाल एक समय और उत्कृष्टकाल साधिक एक सौ वेसठ सागर है । सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी भुजगार, अवस्थित और अवक्तव्य स्थितिविभक्तियोंका काल ओघके समान है। तथा अल्पतर स्थितिविभक्तिका जघन्यकाल एक समय और उत्कृष्टकाल साधिक एक सौ बत्तीस सागर है। अवधिदर्शनवाले जीवोंका भंग अवधिज्ञानी जीवोंके समान है। विशेषार्थ-चक्षुदर्शनमार्गणाका काल यद्यपि दो हजार सागर है पर इसमें अल्पतर स्थितिका काल इतना नहीं प्राप्त होता, इसलिये यह कहा है कि चक्षुदर्शनमें २६ प्रकृतियोंकी अल्पतर स्थितिका जघन्यकाल एक समय और उत्कृष्टकाल साधिक एक सौ त्रेसठ सागर है। तथा सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी अल्पतर स्थितिका उत्कृष्टकाल साधिक एक सौ बत्तीस सागर है। १. ता. प्रतौ चउक्क० [ ओघं ] भवत्तव्व० इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001410
Book TitleKasaypahudam Part 04
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1956
Total Pages376
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy