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________________ २६४ जयधवला सहिदे कसाय पाहुडे [ द्विदिविहत्ती ३ मावूरिय सगसगट्ठिदीणं संखे ० भागं संखेजे भागे च द्विदिकंडयसरूवेण घेत्तूण एइंदिएसुववण्णेसु सम्मत्त सम्मामिच्छत्ताणं दोन्हं हाणीणमुवलंभादो च । जदि एत्थ दो हाणीओ लब्भंति तो ' सेसकम्माणं व अंतोमुहुत्त' मेत्तमंतरं किष्ण उच्चदे ? ण, सम्मत्तसम्मामिच्छत्तट्ठिदिसंतकम्मियाणं जीवाणं गहिद द्विदिकंडयाण मेइं दिए सु उववजमाणाणं बहुआणमभावादो । तं कुदो णव्वदे ? ओघम्मि सम्मत्त सम्मामि० संखे० भागहाणिसंखे० गुणहाणीणं चउवीसमहोरत्तमेतं तरपरूवणण्णहाणुववत्तीदो । एवं सव्वए इंदियपुढवि चादरपुढ वि० - बादरपुढ विपञ्जत्तापञ्जत्त-सुहुम पुढवि० सुहुमपुढविपजत्तापजत आउ०बादरआउ०- बादरआउ पञ्जत्तापञ्जत्त - सुहुमआउ० - सुहुमआउपजत्तापञ्जत-तेउ०- बादरतेउ०- बादरतेउ पञ्जत्तापजत्त - सुहुमतेउ ० -सुहुमते उपजत्तापजत्त - वाउ ० - बादरवाउ ० -बादरवाउ पञ्जत्तापजत्त-सुहुमवाउ०- सुहुमवाउपजत्तापञ्जत्त - सव्ववणफदि - सव्वणिगोदा ति । णवरि बादरपुढविपज्ज० - बादरआउपज ० - बादरते उपज ० - बादरवाउपज ० - बादरवणप्फदि सम्यग्मिथ्यात्वकी उद्वेलना करते हुए विशुद्धिको पूरा करके अपनी अपनी स्थितिके संख्यातवें भाग और संख्यात बहुभागको स्थितिकाण्डकरूपसे ग्रहण करके एकेन्द्रियों में उत्पन्न हुए हैं उनके एकेन्द्रिय पर्याय में सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी उक्त दोनों हानियाँ पाई जाती हैं । शंका- यदि यहाँ दो हानियाँ पाई जाती हैं तो शेष कर्मों के समान अन्तर्मुहूर्तप्रमाण अन्तर क्यों नहीं कहा ? समाधान — नहीं, क्योंकि सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वस्थितिसत्कर्मवाले संज्ञी जीव स्थितिकाण्डकों को ग्रहण करके एकेन्द्रियोंमें उत्पन्न होते हुए बहुत नहीं पाये जाते हैं । शंका- यह किस प्रमाणसे जाना जाता है ? समाधान — ओघमें जो सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व की संख्यात भागहानि और संख्यातगुणहानिका चौबीस दिनरात प्रमाणं अन्तर कहा है वह अन्यथा बन नहीं सकता, इससे जाना जाता है कि स्थितिकाण्डकोंका घात करते हुए संज्ञी पंचेन्द्रिय जीव एकेन्द्रियोंमें बहुत नहीं उत्पन्न होते हैं । इसी प्रकार सब एकेन्द्रिय, पृथिवोकायिक, बादरपृथिवीकायिक, बादर पृथिवीकायिक पर्याप्त और अपर्याप्त, सूक्ष्म पृथिवीकायिक, सूक्ष्म पृथिवीकायिक पर्याप्त और अपर्याप्त, जलकायिक, बादर जलकायिक, बादर जलकायिक पर्याप्त और अपर्याप्त, सूक्ष्म जलकायिक, सूक्ष्म जलकायिक याप्त और अपर्याप्त, अग्निकायिक, बादर अग्निकायिक, बादर अग्निकायिक पर्याप्त और अपर्याप्त, सूक्ष्म अग्निकायिक, सूक्ष्म अग्निकायिक पर्याप्त और अपर्याप्त, वायुकायिक, बादर वायुकायिक, बादर वायुकायिक पर्यात और अपर्याप्त, सूक्ष्म वायुकायिक, सूक्ष्म वायुकायिक पर्याप्त और अपर्याप्त, सब वनस्पतिकायिक और सब निगोद जीवोंके जानना चाहिए। किन्तु इतनी विशेषता है कि बादर पृथिवीकायिकपर्याप्त, बादर जलकायिक पर्याप्त, बादर अग्निकायिक पर्याप्त, बादर वायुकायिक पर्याप्त और बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येकशरीर पर्याप्त जीवोंकी असंख्यातभागवृद्धिका जघन्य १. ता० प्रतौ दो हाणीओ लब्भदि तो इति पाठः । २. ता० प्रतौ व (च ) अंतोमुहुत्त - इति पाठः । ३. ता० प्रतौ चडवीसरचंतरमेत्तपरूवणा - इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001410
Book TitleKasaypahudam Part 04
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1956
Total Pages376
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size10 MB
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