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गा० २२] द्विदिविहत्तीए वड्ढीए अंतरं
२६३ संखे भागहाणि० सम्मत्तस्स संखे०गुणहाणि• अणंताणु० चउक्क० संखे०गुणहाणिअसंखे गुणहाणीणमंतरं जह० एगस०, उक्क० वासपुधत्तं । सव्वट्ठसिद्धिम्मि पलिदो० संखे०भागो।
६४३२. इंदियाणुवादेण एइंदिएसु मिच्छत्त-सोलसक०-णवणोक० असंखे०भागवड्डि-हाणि-अवहि० णत्थि अंतरं । संखेजभागहाणि-संखेजगुणहाणि० जह० एगस०, उक्क० अंतोमु० । सम्मत्त-सम्मामि० असंखे०भागहाणि० णत्थि अंतरं । संख०भागहा०संखे०गुणहा०-असंखेगुणहाणीणं ज० एगस०, उक्क० चउवीसमहोरत्ताणि सादिरेयाणि । एइंदियाणमसंखे०भागवड्डि-हाणि-अवठ्ठाणाणि तिण्णि चेव होति । तत्थ कथं संखे०भागहाणि-संखेगुणहाणीणं संभवो ? किं च उव्वेल्लणकंडयाणमायामो सुट्ट' महंतो वि पलिदो० असंखे०भागमेत्तो चेव । तं कुदो णव्वदे ? उव्वेलणकालस्स पलिदो० असंख०भागपमाणतण्णहाणुववत्तीदो। एवं संते कधं संखे०भागहाणि-संखे०गुणहाणीणं संभवो त्ति ? ण, सम्मत्त-सम्मामिच्छत्तेसु उव्वल्लि देसु उदयावलियभंतरे पविसिय संखेजहिदिसेसेसु तासिं दोण्हं हाणीणमेइंदिएसु उवलंभादो। अट्ठावीससंतकम्मिएसु जीवेसु सण्णिपंचिंदिएसु सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताणि उव्वेल्लमाणेसु विसोहि
अन्तर नहीं है। संख्यातभांगहानिका, सम्यक्त्वकी संख्यातगुणहानिका तथा अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी संख्यातगुणहानि और असंख्यातगुणहानिका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर वर्षपृथक्त्व है। सर्वार्थसिद्धि में पल्यके संख्यातवें भागप्रमाण अन्तर है।
४३२ इन्द्रियमार्गणाके अनुवादसे एकेन्द्रियोंमें मिथ्यात्व, सोलह कषोय, और नौ नोकषायोंकी असंख्यातभागवृद्धि, असंख्यातभागहानि और अवस्थितका अन्तर नहीं है। संख्यातभागहानि और संख्यातगुणहानिका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी असंख्यातभागहानिका अन्तर नहीं है। संख्यातभागहानि, संख्यातगुणहानि और असंख्यातगुणहानिका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अम्तर साधिक चौबीस दिनरात है।
शंका-एकेन्द्रियोंके असंख्यातभागवृद्धि, असंख्यातभागहानि और अवस्थित ये तीनों ही पद होते हैं, अतः वहाँ संख्यातभागहानि और संख्यातगुणहानि कैसे संभव हैं ? दूसरे उद्वेलनाकाण्डकका आयाम बहुत ही बड़ा हुआ तो पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण ही होता है । यदि कहा जाय कि यह किस प्रमाणसे जाना जाता है तो इस प्रतिशंकाका उत्तर यह है कि एकेन्द्रियोंमें उद्वेलनाकाल पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण अन्यथा बन नहीं सकता है इससे जाना जाता है कि उद्वेलनाकाण्डकका आयाम पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है और ऐसा रहते हुए संख्यातभागहानि और संख्यातगुणहानि कैसे बन सकती हैं ?
समाधान नहीं, क्योंकि सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी उद्वेलना करते समय उनके उदयावलिके भीतर प्रवेश करके संख्यात स्थितियोंके शेष रहने पर उक्त दोनों हानियाँ एकेन्द्रियोंमें पाई जाती हैं। तथा अट्ठाईस प्रकृतिसत्कर्मवाले जो संज्ञी पंचेन्द्रिय जीव सम्यक्त्व और
१. ता. प्रतौ -मायामे सुटु इति पाठः ।
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