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________________ १८२ जयधर्वलासहिदे कसायपाहुडे [हिदिविहत्ती ३ एगसमओ । अणंताणु० अवत्तव्य० ओघं । सम्मत्त-सम्मामि० चत्तोरिवड्डि-तिण्णिहाणिअवट्ठाण-अवत्तव्याणमोघं । असंखेज्जभागहाणी. ज. एगसमओ, उक. पणवण्ण पलिदोवमाणि पलिदो० असंखेज्जदिभागेण सादिरेयाणि । पुरिसवेद० अट्ठावीसं पयडीणं सव्वपदाणमोघं । णवरि छव्वीसं पयडीणं संखेज्जभागवड्डी० मिच्छत्त-सोलसक०-भयदुगुछाणं संखेज्जगुणवड्डीए च जहण्णुक० एगस० । लोभसंजल. संखेज्जगुणहाणीए इत्थिभंगो । अवगद० मिच्छत्त०-पम्मत्त-सम्मामि० असंखेज्जभागहाणीए जह० एगस०, उक्क० अंतोमु० । संखेज्जभागहाणी० जहण्णुक० एगस० । एवमट्टकसायाणं । सत्तणोकसायाणमसंखेज्जभागहाणी. ज. एगस०, उक. अंतोमु० । संखज्जमागहाणिसंखेज्जगुणहाणी० जहण्णुक० एगस० । एवं चदुण्डं संजलणाणं । णवरि लोभसंज. संखेज्जभागहाणी० ओघं । इत्थि-णवंसयवेदाणमट्ठकसायभंगो । चतुष्कर अवक्तव्यका काल अोधके समान है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी चार वृद्धि, तीन हानि, अवस्थान और अवक्तव्यका काल ओघके समान है। असंख्यातभागहानिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल पल्योपमका असंख्याववाँ भाग अधिक पचवन पल्य है। पुरुषवेदियोंमें अट्ठाईस प्रकृतियोंके सब पदोंका काल ओषके समान है। किन्तु इतनी विशेषता है कि छब्बीस प्रकृतियोंकी संख्यातभागवृद्धिका और मिथ्यात्व, सोलह कषाय, भय और जुगुप्साकी संख्यातगुणवृद्धिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। लोभसंज्वलनकी संख्यातगुणहानिका भंग स्त्रीवेदियों के समान है। अपगतवेदियोंमें मिथ्यात्व, सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी असंख्यात- . भागहानिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है । संख्यातभागहानिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। इसी प्रकार आठ कषायोंका जानना चाहिए। सात नोकषायोंकी असंख्यातभागहानिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। संख्यातभागहानि और संख्यातगुणहानिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। इसी प्रकार चारों संज्वलनोंका जान चाहिए । किन्तु इतनी विशेषता है कि लोभ संज्वलनकी संख्यातभागहानिका काल ओघके समान है। स्त्रीवेद और नपुंसकवेदका भंग आठ कषायोंके समान है। विशेषार्थ हास्यादि सात प्रकृतियोंकी संख्यातगुणवृद्धिके उत्कृष्ट काल दो समयका कारण पहले बतला आये हैं उसी प्रकार स्त्रीवेदियोंके भी समझना चाहिये । यद्यपि स्त्रीवेदीका उत्कृष्ट काल सौ पल्य पृथक्त्व है तथापि इनके २६ प्रकृतियोंकी निरन्तर असंख्यातभागहानि सम्यक्त्व दशामें ही सम्भव है और स्त्रीवेदमें सम्यक्त्वका उत्कृष्ट काल कुछ कम पचवन पल्य है, अतः यहाँ २६ प्रकृतियों की असंख्यातभागहानिका उत्कृष्ट काल उक्त प्रमाण कहा है । लोभ संज्वलनकी संख्यातभागहानिका उत्कृष्ट काल दसवें गुणस्थानमें प्राप्त होता है। अन्यत्र तो एक समय ही बनता है। पर दसवेमें स्त्रीवेद नहीं होता, अतः स्त्रीवेदमें लोभसंज्वलनकी संख्यातभागहानिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय कहा है। जो स्त्रीवेदी पल्यके असंख्यात भाग कालसे सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी असंख्यातभागहानि कर रहा है वह यदि इस कालके भीतर पचवन पल्यकी आयुवाली देवियोंमें उत्पन्न हो जाय और वहाँ वेदकसम्यक्त्वको प्राप्त करके जीवन भर उसके साथ रहे तो उसके भी सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी असंख्यातभागहानि सम्भव है, अतः इनकी असंख्यातभागहानिका उत्कृष्ट काल पल्यका असंख्यातवाँ भाग अधिक पचवन पल्य कहा है । छब्बीस प्रकृतियों की संख्यातभागवृद्धिका उत्कृष्ट काल दो समय तथा मिथ्यात्व, सोलह कषाय, भय और जुगुप्साकी संख्यात. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001410
Book TitleKasaypahudam Part 04
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1956
Total Pages376
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size10 MB
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