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________________ ७४ जयधवला सहिदे कसायपाहुडे * अंतरं । $ १४३. सुगमं, अहियार संभालणफलतादो । * सम्मत्त-सम्मामिच्छ्रत्ताणं भुजगार अवत्तव्वद्विदिविहत्तियंतरं केवचिरं कालादो होदि ? S १४४. एदं पि सुगमं । * जहरणेण एगसमत्रो । १४५. कुदो ? सम्मत-सम्मामिच्छत्ताणं भुजगारमवत्तव्वं च काढूण सम्मत्तं पडिवज्जमाणजीवाणं जह० एगसमय मे तंतरुवलंभादो । * उक्कस्सेण चउवीसमहोरत्ते सादिरेगे । $ १४६. सामण्णेण सम्मत्तग्गहणंतर कालो चडवीसं अहोरत्तमेतो त्ति पृव्वं परुविदो । संपहि अवत्तव्वभावेण सम्मत्तग्गहणंतरकालो वि तत्तिओ चेवे त्ति कथमेदं जुज्जदे ?ण एस सम्यग्दृष्टियों का जघन्य काल एक समय है, अतः यहाँ जघन्य काल एक समय बतलाया है । उत्कृष्ट काल पूर्ववत् है । कार्मणकाययोग और अनाहारक जीवोंका सर्वदा काल है। यही बात औदारिकमिश्रकी है, अतः यहाँ सब प्रकृतियोंके सम्भव पदका काल औदारिकमित्र के समान बन जाता है । किन्तु सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी अल्पतर स्थितिवालोंके काल में विशेषता है। बात यह है कि एक जीवकी अपेक्षा कार्मणकाययोग और अनाहारक अवस्थाका उत्कृष्ट काल तीन समयसे अधिक नहीं है और सम्यक्त्व तथा सम्यामिध्यात्वकी सत्तावाले जीव असंख्यात होते हुए भी स्वल्प हैं । अब यदि उपक्रम कालकी अपेक्षा विचार किया जाता है तो यहाँ आवलिके असंख्यातवें भागसे अधिक काल नहीं प्राप्त होता । अतः यहाँ उक्त दोनों प्रकृतियोंकी अल्पतर स्थितिवालोंका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण बतलाया है । इस प्रकार कालानुगम समाप्त हुआ । * अब अन्तरानुगम का अधिकार है । ६ १४३. यह सूत्र सुगम है, क्योंकि इसका फल अधिकारका सम्हालनामात्र है । * सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी भुजगार और अवक्तव्य स्थितिविभक्तिका अन्तरकाल कितना है ? $ १४४. यह सूत्र भी सुगम है। * जघन्य अन्तरकाल एक समय है । Jain Education International [ हिदिविहत्ती ३ १४५. क्योंकि सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वके भुजगार और अवक्तव्य के साथ सम्यक्त्वको प्राप्त होनेवाले जीवोंका जघन्य अन्तरकाल एक समयमात्र पाया जाता है । विशेषार्थ - सम्यग्दर्शन के प्राप्त होनेके प्रथम समय में सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी भुजगार और अवक्तव्य स्थिति होती है । अब यदि प्रथम और तीसरे समय में बहुत से जीव उक्त पदों के साथ सम्यग्दर्शनको प्राप्त हुए और दूसरे समय में नहीं हुए तो उक्त पदोंका जघन्य अन्तर काल एक समय प्राप्त हो जाता है। यह उक्त सूत्रका भाव है । * उत्कृष्ट अन्तरकाल साधिक चौबीस दिन रात है । § १४६. शंका - पहले सामान्य से सम्यक्त्व के ग्रहणका अन्तरकाल चौबीस दिन रात कहा अब सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व की अवक्तव्यस्थितिविभक्तिके साथ सम्यक्त्व ग्रहणका अन्तर For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001410
Book TitleKasaypahudam Part 04
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1956
Total Pages376
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size10 MB
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