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________________ २३४ जयधबलासहिदे कसायपाहुडे [द्विदिविहत्ती ३ ३७६. आदेसेण रहएसु छब्बीसं पयडीणं तिण्णिवड्डि-तिण्णिहाणि-अवडिद० के० १ लो असंखे०भागो छचोद्द० देसूणा। सम्मत्त-सम्मामि० चत्तारिहाणि लोग० असंखे०भागो छचोदस० देसूणा। चत्तारिवाड्डि-अवढि०-अवत्त व. अणंताणु०चउक्क० असंखे०गुणहाणि-अवत्तव० के० १ लोग० असंखे०भागो । विदियादि जाव सत्तमित्ति एवं चेव । णवरि अप्पणो रज्जू'णायव्वा । पढमपु०वि० खेत्तभंगो। नहीं होता, इसलिए इसमें छब्बीस प्रकृतियोंकी दो वृद्धियों और दो हानियोंका स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण और सब लोकप्रमाण कहा है। अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी असंख्यातगुणहानि और अवक्तव्यपदका तथा स्त्रीवेद और पुरुषवेदकी दो वृद्धियोंका स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण कहा है । सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी चार वृद्धियाँ. अवस्थित और अवक्तव्यपदका स्पर्शन भी लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण कहा है। तथा चार हानियोंका स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण और सब लोक प्रमाण कहा है। यहाँ औदारिककाययोगमें जो विशेषता कही है वह नपुंसकवेदमें अविकल बन जाती है। यद्यपि नपुंसकवेद नारकियोंके होता है पर उससे उक्त विशेषतामें कोई अन्तर नहीं पड़ता है। हाँ स्त्रीवेद और पुरुषवेदकी दो वृद्धियोंके स्पर्शनमें अन्तर आ जाता है, क्योंकि जो नारकी तिर्यञ्चों और मनुष्योंमें मारणान्तिक समुद्घात करते हैं उनके भी स्त्रीवेद और पुरुषवेदकी दो वृद्धियाँ सम्भव हैं, अतः नपुंसकोंमें इन दो वेदोंकी दो वृद्धियोंका स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण और कुछ कम छह बटे चौदह राजुप्रमाण कहा है। इक्कीस प्रकृतियोंकी असंख्यातगुणहानि चारित्रमोहकी क्षपणाके समय होती है. इसलिए यहाँ असंयतोंमें इसका निषेध किया है। ६३७६. आदेशकी अपेक्षा नारकियोंमें छब्बीस प्रकृतियोंकी तीन वृद्धि, तीन हानि और अवस्थित स्थितिविभक्तिवाले जीवोंने कितने क्षेत्रका स्पर्शन किया है ? लोकके असंख्यातवें भाग और त्रसनालीके चौदह भागोंमेंसे कुछ कम छह भाग प्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी चार हानिस्थितिविभक्तिवाले जीवोंने लोकके असंख्यातवें भाग और प्रसनालीके चौदह भागोंमेंसे कुछ कम छह भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। चार वृद्धि, अवस्थित और अवक्तव्य स्थितिविभक्तिवाले जीवोंने तथा अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी असंख्यातगुणहानि और अवक्तव्य स्थितिविभक्तिवाले जीवोंने कितने क्षेत्रका स्पर्शन किया है ? लोकके असंख्यातवें भाग क्षेत्रका स्पर्शन किया है। दूसरीसे लेकर सातवीं पृथिवीतक इसी प्रकार जानना चाहिए। किन्तु इतनी विशेषता है कि अपने अपने राजु जानना चाहिए। तथा पहली पृथिवीमें स्पर्शन क्षेत्रके समान है। विशेष:र्थ---सामान्यसे नारकियोंके स्पर्शनको ध्यानमें रखकर यहाँ छब्बीस प्रकृतियोंकी तीन वृद्धियाँ, तीन हानियाँ और अवस्थितपदका स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण और कुछ कम छह बटे चौदह राजुप्रमाण कहा है। इसी प्रकार सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी चार हानियोंका उक्त स्पर्शन घटित कर लेना चाहिए। पर इनकी चार वृद्धियाँ, अवस्थित और अवक्तव्यपद तथा अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी असंख्यातगुणहानि और अवक्तव्यपद मारणान्तिक समुद्भात और उपपादपदके समय सम्भव न होनेसे यह स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण कहा है। द्वितीयादि पृथिवियोंमें यह स्पर्शन इसी प्रकार घटित कर लेना चाहिए। मात्र कुछ कम छह बटे चौदह राजुप्रमाण स्पर्शनके स्थानमें अपना अपना स्पर्शन कहना चाहिए। पहली पृथिवीमें स्पर्शन क्षेत्रके समान है यह स्पष्ट ही है। , ता. प्रतौ अप्पणा रज्जू इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001410
Book TitleKasaypahudam Part 04
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1956
Total Pages376
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size10 MB
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