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________________ गा० २२ ] वड्डिपरूवणाए फोसणं २३५ $ ३७७, तिरिक्खेसु छब्बीसं पयडीणं असंखे ० भागवड्डि- हाणि अवट्टि० ओघं । दोवड्डि- दोहाणि० लोग० असंखे० भागो सव्वलोगो वा । णवरि अणंताणु० चउक्क० असंखे० गुणहाणि-अवत्तव्व० इत्थि पुरिस० दोवड्डि० लोग० असंखे० भागो । सम्मत्तसम्मामि० चत्तारिहाणि० लो० असंखे० भागो सव्वलोगो वा । सेसपदाणं खेत्तभंगो । पंचि०तिरिक्खतियम्मि छब्बीसं पयडीणं सव्वपदाणं लो० असंखे० भागो सव्वलोगो वा । णवरि अणंताणु ० चउक्क० असंखे० गुणहाणि अवतव्व ० इत्थि - पुरिस० तिष्णि वड्डि-अवट्ठि' लो० असंखे० भागो । सम्मत्त सम्मामि० तिरिक्खोघं । पंचि०तिरि० अपज्ज० - मणुस अपज्ज० अट्ठावीसं पयडीणं सव्वपदवि० लोग० असंखे० भागो सव्वलोगो वा । णवरि इत्थि - पुरिस० तिण्णिवड्डि-अवट्टि० लो० असंखे० भागो । एवं पंचि ० अपज्ज० - तस अपज्जत्ताणं । मणुसतियम्मि छब्बीसं पयडीणं सव्वपदवि पंचिंदियतिरिक्खभंगो | णवरि असंखे० गुणहाणि० लोग० असंखे० भागो । सम्मतसम्मामि० पंचिं० तिरिक्खभंगो । $३७७. तिर्यंचोंमें छब्बीस प्रकृतियोंकी असंख्यातभागवृद्धि असंख्यात भागहानि और अवस्थितका भंग ओघके समान है । दो वृद्धि और दो हानि स्थितिविभक्तिवाले जीवोंने लोकके असंख्यातवें भाग और सब लोक क्षेत्रका स्पर्शन किया है । किन्तु इतनी विशेषता है कि अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी असंख्यातगुणहानि और अवक्तव्य स्थितिविभक्तिवाले जीवोंने तथा स्त्रीवेद और पुरुषवेदकी दो वृद्धि स्थितिविभक्तिवाले जीवोंने लोकके असंख्यातवें भाग क्षेत्रका स्पर्शन किया है । सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी चार हानिस्थितिविभक्तिवाले जीवोंने लोकके असंख्यातवें भाग क्षेत्रका और सब लोक क्षेत्रका स्पर्शन किया है। शेष पदोंका भंग क्षेत्रके समान है । तीन प्रकारके पंचेन्द्रिय तिर्यंचोंमें छब्बीस प्रकृतियोंके सब पदोंका स्पर्शन लोकका असंख्यातवाँ भाग और सब लोक है | किन्तु इतनी विशेषता है कि अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी असंख्यातगुणहानि और अवक्तव्यका स्पर्शन तथा स्त्रीवेद और पुरुषवेदकी तीन वृद्धि और अवस्थितका स्पर्शन लोकका असंख्यातवाँ भाग है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी अपेक्षा स्पर्शन सामान्य तिर्यंचों के समान है । पंचेन्द्रिय तिर्यंच अपर्याप्त और मनुष्य अपर्याप्तकों में अट्ठाईस प्रकृतियोंके सब पद स्थितिविभक्तिवालोंने लोकके असंख्यातवें भाग और सब लोकका स्पर्शन किया है । किन्तु इतनी विशेषता है कि स्त्रीवेद और पुरुषवेदकी तीन वृद्धि और अवस्थितस्थितिविभक्तिका स्पर्शन लोकका असंख्यातवाँ भाग है । इसी प्रकार पंचेन्द्रिय अपर्याप्त और त्रस अपर्याप्त जीवोंके जानना चाहिए। तीन प्रकारके मनुष्योंमें छब्बीस प्रकृतियोंके सब पदोंका भंग पंचेन्द्रिय तिर्यंचोंके समान है । किन्तु इतनी विशेषता है कि असंख्यातगुणहानिका स्पर्शन लोकका असंख्यातवाँ भाग है । सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका भंग पंचेन्द्रिय तिर्यंचोंके समान है । विशेषार्थ – तिर्यञ्चोंमें छब्बीस प्रकृतियोंकी असंख्यात भागवृद्धि, असंख्यातभागहानि और अवस्थितपद सब एकेन्द्रियादि जीवोंके सम्भव होनेसे इनका स्पर्शन ओघके समान सब लोकप्रमाण कहा है । इन प्रकृतियोंकी दो वृद्धियाँ और दो हानियाँ ऐसे जीवोंके ही सम्भव हैं जिनका वर्तमान स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण और अतीत स्पर्शन सब लोकप्रमाण होता है, अतः यह उक्तप्रमाण कहा है। मात्र अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी असंख्यातगुणहानि और अवक्तव्यपदका तथा १ आ. प्रतौ० तिष्णिवड्डि-तिष्णिहाणि भव०ि इति वाठ:: Jain Education International ० For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001410
Book TitleKasaypahudam Part 04
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1956
Total Pages376
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size10 MB
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