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________________ गा० २२] हिदिविहत्तीए उत्तरपयडिभुजगारकालो ६३. वेदाणुवादेण इत्थि० मिच्छत्तस्स भुज० ज० एगसमो, उक्कम्सेण तिण्णि समया। अप्प० ज० एगस०, उक्क. पणवण्ण पलिदोवमाणि देसूणाणि । अवढि० ओषं । बारसक०-णवणोक. भुज० ज० एगस०, उक्क० अट्ठारस समया । णवरि पुरिस०-णदुंस० सत्तारस समया। अप्प०-अवहि० मिच्छत्तभंगो ।अणंताणु० चउक्क० एवं चेव । णवरि अवत्तव्व० जहण्णुक्क० एगस० । सम्मत्त-सम्मामि० भुज अवहि ०. अवत्तव्व० श्रोघं । अप्पद० ज० एगस०, उक्क. पणवण्णपलिदो० सादिरेयाणि । पुरिसवेद० पंचिंदियभंगो । णवरि इत्थि-णqस. भुज. उक० सत्तारस समया। णस० मिच्छत्त-सोलसक०-णवणोक०-भुज०-अवहि० अोघं। णवरि इत्थि-पुरिस० भुज० उक्क ० सत्तारस समया। अप्प० ज० एगस०, उक० तेत्तीससागरोवमाणि देसूणाणि । अणंताणु०चउक्क० अवत्तव्वं ओघं । सम्मत्त-सम्मामि० अप्प० ज० एगस०, उक्क० तेत्तीसं सागरो० सादिरेयाणि । सेस० ओघं । अवगदवेद० चउवीसपयडि. अप्प० काययोगमें भी समझना चाहिये। इतना विशेषता है कि मिश्रयोगोंमें अवक्तव्य भंग नहीं होता। तथा आहारककाययोग और आहारकमिश्रकाययोगमें एक अल्पतर स्थितिविभक्ति ही होती है। उपशमसम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका उत्कृष्टकाल भी अन्तर्मुहूर्त है तथा इनमें एक अल्पतर स्थितिविभक्ति ही होती है इसलिये इनमें अल्पतर स्थितिके कथनको आहारकद्विकके समान कहा । कार्मण काययोगमें अद्धाक्षय और संक्लेशक्षयकी अपेक्षा सर्वत्र भुजगारके दो समय ही प्राप्त होते हैं, इसलिये इसमें छब्बीस प्रकृतियोंकी भुजगार स्थितिका उत्कृष्टकाल दो समय कहा ल तीन समय है इसलिये इसमें सब प्रकृतियोंकी अल्पतर स्थितिका उत्कृष्टकाल तीन समय कहा। संसारी जीवोंके अनाहारक अवस्था कामणकाययोगमें ही होती है, अतः इसके कथनको कार्मणकाययोगके समान कहा । शेष कथन सुगम है। ६३. वेदमागणाके अनुवादसे खावेदय में मिथ्यात्वकी भजगार स्थितिविभक्तिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्टकाल तीन समय हे । अल्पतर स्थितिविभक्तिका जघन्यकाल एक समय और उत्कृष्टकाल कुछ कम पचवन पल्य है। अवस्थित स्थितिविभक्तिका काल अोधक समान है। बारह कषाय और नौ नोकषायोंकी भुजगार स्थितिविभक्तिका जघन्यकाल एक समय और उत्कृष्ट काल अठारह समय है। किन्तु इतनी विशेषता है कि इनके पुरुषवेद और नपुंसकवेदकी भुजगार स्थितिविभक्तिका उत्कृष्टकाल सत्रह समय है । तथा अल्पतर और अवस्थित स्थितिविभक्तिका भंग मिथ्यात्वके समान है। अनन्तानुबन्धी चतुष्कका इसी प्रकार जानना चाहिए। किन्तु इतनी विशेषता है कि प्रवक्तव्य स्थितिविभक्तिका जघन्य और उत्कृष्टकाल एक समय है । सम्यक्त्व और सम्यग्मिध्यात्वकी भुजगार, अवस्थित और अवक्तव्य स्थितिविभक्तियोंका काल ओघके समान है। अल्पतर स्थितिविभक्तिका जघन्यकाल एक समय और उत्कृष्टकाल साधिक पचवन पल्य है। पुरुषवेदीजीवाके पंचेन्द्रियोंके समान भंग है। किन्तु इतनी विशेषता है कि इनके स्त्रीवेद और नपुंसकवेदकी भुजगार स्थितिविभक्तिका उत्कृष्टकाल सत्रह समय है। नपुंसकवोदयोंमें मिथ्यात्व, सोलह कषाय और नौ नोकषायोंकी भुजगार और अवस्थित स्थितिविभक्तिका काल ओघके समान है। किन्तु इतनी विशेषता है कि इनके स्त्रीवेद और पुरुषवेदकी भुजगार स्थितिविभक्तिका उत्कृष्टकाल सत्रह समय है। अल्पतर स्थितिविभक्तिका जघन्यकाल एक समय और उत्कृष्टकाल कुछ कम तेतीस सागर है। अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी अवक्तव्य स्थितिविभक्तिका काल ओघके समान है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी अल्पतर स्थितिविभक्तिका जघन्यकाल एक समय और उत्कृष्टकाल साधिक तेतीस Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001410
Book TitleKasaypahudam Part 04
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1956
Total Pages376
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size10 MB
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