________________
३८
जयधवला सहिदे कसायपाहुडे
ज० एस ०, उक्क० अंतोमु० । एवमकसा० सुहम० - जहाक्खादसंजदे त्ति |
०६४. चत्तारिक० मिच्छत्त-सम्मत-सम्मामि ० - सोलसक० - णवणोक० भुज०० सम्म सम्मामि० अणंताणु० चउक्क० अवत्तव्व० श्रोधं । अप्प० ज० एस ०, उक्क अंतोमु० ।
O
६५. मदि० सुद० मिच्छत्त-सोलसक० णवणोक० भुज० - अवहि० ओघं । अप्प० ज० एस ०, उक्क० एकतीसं सागरो ०' सादिरेयाणि । सम्मत्त सम्मामि० अप्पद० सागर है । शेष कथन ओघ के समान है । अपगतवेदियों में चौबीस प्रकृतियोंकी अल्पतर स्थितिविभक्तिका जघन्यकाल एक समय और उत्कृष्टकाल अन्तर्मुहूर्त है । इसी प्रकार अकषायी, सूक्ष्म सांप रायिकसंगत और यथाख्यातसंयत जीवोंके जानना चाहिए ।
६४. क्रोधादि चारों कषायवाले जीवों में मिध्यात्व, सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व, सोलह कषाय और नौ नोकषायोंकी भुजगार और अवस्थित स्थितिविभक्तिका तथा सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी अवक्तव्य स्थितिविभक्तिका काल ओघके समान है । अल्पतर स्थितिविभक्तिका जघन्यकाल एक समय और उत्कृष्टकाल अन्तर्मुहूर्त है ।
विशेषार्थ – वेदमार्गणा में निम्न बातें ध्यान देने योग्य हैं। पहली तो यह कि विवक्षित वेद में उस वेदके अतिरिक्त शेष वेदोंकी भुजगार स्थितिका उत्कृष्टकाल सत्रह समय होता है । दूसरी यह कि यद्यपि स्त्रीवेदी आदिका उत्कृष्टकाल सौ पल्य पृथक्त्व आदि है फिर भी इनमें मिथ्यात्व आदिकी अल्पतर स्थितिका काल उस वेद के उत्कृष्टकाल प्रमाण नहीं है । इनमें से स्त्रीवेदमें मिध्यात्व आदि छब्बीस प्रकृतियोंकी अल्पतर स्थितिका काल कुछ कम पचवन पल्य है, क्योंकि यहाँ सम्यग्दर्शन का जो उत्कृष्टकाल है वही यहाँ उक्त प्रकृतियोंकी अल्पतर स्थितिका उत्कृष्टकाल प्राप्त होता है । किन्तु सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व के विषय में स्थिति इससे भिन्न है । बात यह है कि इनकी अल्पतर स्थितिका उत्कृष्टकाल सम्यक्त्व व मिथ्यात्व के क्रम से प्राप्त होते रहने से होता है और स्त्रीवेदियों में मिध्यादृष्टि जीव ही उत्पन्न होता है अतः सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व की अल्पतर स्थितिका उत्कृष्टकाल साधिक पचवन पल्य प्राप्त होता है । तथा ओघ में सत्र प्रकृतियोंकी जो भुजगार आदि स्थिति कही है वह अधिकतर पुरुषवेदकी प्रधानता से ही घटित होती है । पंचेन्द्रियों में भी वह अविकल बन जाती है, क्योंकि पुरुषवेदी पंचेन्द्रिय ही होते हैं, अतः यहाँ पुरुषवेद में भुजगार स्थिति आदिका काल पंचेन्द्रियों के समान कहा । तथा नपुंसक वेद में २६ प्रकृतियोंकी अल्पतर स्थितिका उत्कृष्टकाल कुछ कम तेतीस सागर है, क्योंकि यहाँ सम्यग्दर्शनका जो उत्कृष्टकाल है वही उक्त प्रकृतियोंकी अल्पतर स्थितिका उत्कृष्टकाल है । तथा सम्यक्त्व और सम्यग्मिध्यात्वकी अल्पत्तर स्थितिका उत्कृष्टकाल साधिक तेतीस सागर है । विशेष खुलासा जिस प्रकार स्त्रीवेदियों के कर आये हैं उसी प्रकार यहाँ भी कर लेना चाहिये । शेष कथन सुगम है | अवगतवेदमें सब प्रकृतियों की अल्पतर स्थिति ही होती है। तथा इसका जघन्यकाल एक समय और उत्कृष्टकाल अन्तर्मुहूर्त है अतः इसमें सब प्रकृतियोंकी अल्पतर स्थितिका जघन्यकाल एक समय और उत्कृष्टकाल अन्तर्मुहूर्त कहा। इसी प्रकार अकपायी, सूक्ष्मसाम्परायिकसंयत और यथाख्यात संयत जीवोंके भी घटित कर लेना चाहिये । तथा क्रोधादि चारों कषायोंकी अल्पतर स्थिति का उत्कृष्टकाल अन्तर्मुहूर्त है, अतः इनमें सब प्रकृतियोंकी अल्पतर स्थितिका उत्कृष्टकाल अन्तर्मुहूर्त कहा। शेष कथन सुगम है ।
1
$ ६५. मत्यज्ञानी और श्रुताज्ञानी जीवों में मिध्यात्व, सोलह कषाय और नौ नोकषायोंकी भुजगार और अवस्थित स्थितिविभक्तिका काल ओधके समान है। तथा अल्पतर स्थितिविभक्तिका
१. ता० प्रतौ सागरो० देसूणाणि इति पाठः ।
Jain Education International
[ द्विदिविहत्ती ३
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org