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________________ गा० २२ ] saणाए अंतरं २०३ $ ३३२. इंदियाणुवादेण एइंदिएस असंखेज्जभागवड्डि-अवट्ठि ० जह० एस ०, उक्क० अंतोमुहु० । एवमसंखेज्जभागहाणीए वि वत्तव्वं । संखेज्जभागहाणि-संखेज्जगुणहाणीणं णत्थि अंतरं; पंचिदिएस आढत्तट्ठिदिकंडएस एइंदिएस पदमाणेसु संखेज्जभागहाणि संखेज्जगुणहाणीणं तत्थुवलंभादो । मिच्छत - सोलसक० - णवणोकसायाणमेसा परूवणा । सम्मत्त सम्मामि० असंखेज्जभागहाणो० जहण्णुक० एस० । असंखेज्जगुणहाणी० णत्थि अंतरं । संखेज्जभागहाणि संखेज्जगुणहाणीणं जहण्णुक्क० पलिदो ० असंखेज्जदिभागो | कुदो १ पंचिदिएण आरद्धद्विदिकंडएण एइंदिएस घादिय संखेज्जभागहाणि संखेज्जगुणहाणीणमादिं' काढूण असंखेज्जभागहाणीए अंतरिय जडण्णदी हुब्वेल्लणकालेहि सम्मत्त सम्मामिच्छत्ताणि उव्वेल्लिय उकस्ससंखेज्जमे तणिसेगेसु सेसेसु संखज्जभागहाणीए लद्धमंतरं । दोसु णिसेगेसु एगणिसेगे गलिदे संखेज्जगुणहाणीए लद्धमंतरं जेण तदो पलिदो० असंखेज्जदिभागमेत्तमंतरं सिद्धं । एवं बादरेइंदिय - सुहुमे इंदिय- पुढवि०बादरपुढवि सुमढवि० आउ०- बादरआउ०- सुडुम आउ० तेउ० - बादरतेउ०- सुडुमते उ० चाहिये | किन्तु अवस्थित पद बारहवें स्वर्ग तक ही पाया जाता है, अतः उसका उत्कृष्ट अन्तरकाल साधिक अठारह सागर कहा है । शेष कथन सुगम है । भवनवासियोंसे लेकर सहस्रार तक यह घ प्ररूपणा बन जाती है, अतः उनके कथनको सामान्य देवोंके समान समझना चाहिये । किन्तु उत्कृष्ट अन्तरकाल जहाँ साधिक अठारह सागर या कुछ कम इकतीस सागर कहा है वहाँ कुछ कम अपनी अपनी उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण कहना चाहिये। इसी प्रकार आगेके कल्पोंमें भी यथायोग्य वहाँकी विशेषताओं को ध्यान में रखकर अन्तरकाल घटित कर लेना चाहिये | ९ ३३२. इन्द्रियमार्गणा के अनुवाद से एकेन्द्रियोंमें असंख्यात भागवृद्धि और अवस्थितका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है । इसी प्रकार असंख्यात भागहानिका अन्तर भी कहना चाहिये । संख्यात भागहानि और संख्यातगुणहानिका अन्तर नहीं है, क्योंकि जिन्होंने स्थितिकाण्डकोंका आरम्भ कर दिया है ऐसे जो पंचेन्द्रिय एकेन्द्रियों में उत्पन्न होते हैं उनके ही संख्या भागहानि और संख्यातगुणहानि पाई जाती हैं । यह प्ररूपणा मिध्यात्व, सोलह कषाय और नौ नोकषायों की अपेक्षा की है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी असंख्यात भागहानिका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर एक समय है । असंख्यातगुणहानिका अन्तर नहीं है । संख्यातभागहानि और संख्यातगुणहानिका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है, क्योंकि पंचेन्द्रिय के द्वारा आरम्भ किये गये स्थितिकाण्डकका एकेन्द्रियमें आकर घात किया और इस प्रकार संख्यातभागहानि तथा संख्यातगुणहानिका प्रारम्भ किया अनन्तर असंख्यात भागहानिके द्वारा अन्तर करके जघन्य और उत्कृष्ट उद्वेलनाकालके द्वारा सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी उद्वेलना करते हुए जब उनके निषेक उत्कृष्ट संख्यातप्रमाण शेष रह जायँ तब पुनः संख्यातभागहानि होती है और इस प्रकार चूँकि संख्यात भागहानिका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर प्राप्त होता है। तथा अन्तमें शेष रहे दो निषेकों में से एक निषेकके गलित होनेपर चौंकि संख्यातगुणहानिका अन्तर प्राप्त होता है, अतः दोनोंका अन्तर पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है यह सिद्ध हुआ । इसी प्रकार बादर एकेन्द्रिय, सूक्ष्म एकेन्द्रिय, पृथिवीकायिक, बादर पृथिवीकायिक, सूक्ष्म पृथिवीकायिक, जलकायिक, बादर जलकायिक, सूक्ष्म जलकायिक, अग्निकायिक, बादर अमिकायिक, सूक्ष्म अभिकायिक, वायुकायिक, १ भा० प्रतौ संखेजभागहाणीणमादि इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001410
Book TitleKasaypahudam Part 04
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1956
Total Pages376
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size10 MB
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