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काल-उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध कमसे कम एक समय तक और अधिकसे अधिक अन्तर्मुहूर्त काल तक होता है, इसलिए सामान्यसे मोहनीयकी उत्कृष्ट स्थितिविभक्तिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल
| एक बार उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध होकर पुनः उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध होने में कमसे कम अन्तर्मुहूर्त काल लगता है और यदि कोई जीव उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करके एकेन्द्रियादि पर्यायोंमें परिभ्रमण करने लगे तो उसके अनन्त काल तक उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध नहीं होगा, इसलिए यहां अनुत्कृष्ट स्थितिविभक्तिका जघन्य और उत्कृष्ट काल उक्तप्रमाण जानना चाहिए। नौ नोकषायोंमें नपुंसकवेद अरति, शोक, भय और जुगुप्साका बन्ध सोलह कषायोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धके साथ भी सम्भव है और इसलिए इनकी उत्कृष्ट स्थितिविभक्तिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त बन जाता है पर शेष चार नोकषायोंका बन्ध सोलह कषायोके उत्कृष्ट स्थितिवन्धके समय सम्भव नहीं है, इसलिए इनकी उत्कृष्ट स्थितिविभक्तिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल एक आवलिप्रमाण है। तथा इन नौ नोकषायोंकी अनुत्कृष्ट स्थितिविभक्तिका जघन्य काल एक समय है, क्योंकि क्रोधादि कषायोंकी एक समयके अन्तरसे एक समय आदि कम अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्ध कर एक आवलिके बाद उसका उसी क्रमसे नौ नोकषायोंमें संक्रमण करने पर इनकी अनुत्कृष्ट स्थितिका जघन्य काल एक समय उपलब्ध होता है। तथा उत्कृष्ट काल सोलह कषायोंके समान अनन्त काल है यह स्पष्ट ही है । सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिविभक्ति जो मोहनोयको उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाला जीव अन्तर्मुहूर्तमें वेदकसम्यक्त्वको प्राप्त होता है उसके प्रथम समयमें होती है, इसलिए इसका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय कहा है। तथा जो जीव उपशमसम्यक्त्वके साथ इन दोनों प्रकृतियोंकी सत्ता प्राप्त कर अन्तर्मुहूर्तमें क्षायिक सम्यग्दृष्टि हो जाता है उसके इनकी अनुत्कृष्ट स्थितिविभक्तिका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त देखा जाता है और जो बीचमें सम्यग्मिथ्यात्वके साथ दो छयासठ सागर कालतक वेदकसम्यक्त्व के साथ रहता है उसके साधिक दो छयासठ सागर कालतक इनकी अनुत्कृष्ट स्थितिविभक्ति देखी जाती है, इसलिए इनकी अनुत्कृष्टस्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट काल उक्तप्रमाण कहा है। सामान्यसे मोहनीयको जघन्य स्थिति क्षपक सूक्ष्मसाम्परायके अन्तिम समय में होती है इसलिए इसका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है । तथा अजघन्य स्थितिविभक्ति अभव्योंकी अपेक्षा अनादि अनन्त और भव्योंकी अपेक्षा अनादि-सान्त है। उत्तर प्रकृतियोंकी अपेक्षा छह नोकषायोंके सिवा शेष सब प्रकृतियोंकी जघन्य स्थितिविभक्तिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। मिथ्यात्व बारह कषाय और तीन वेदको अजघन्य स्थितिविभक्तिका काल अनादि-अनन्त और अनादि-सान्त है, क्योंकि इनकी जघन्य स्थिति क्षपणाके अन्तिम समयमें होती है, इसलिए यह काल बन जाता है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिध्यात्वकी जघन्य स्थिति भी अपनी अपनी क्षपणाके अन्तिम समयमें होती है, इसलिए इनकी अजघन्य स्थितिका जघन्य काल अन्तर्महर्त और उत्कृष्ट काल साधिक दो छयासठ सागर प्रमाण है। कारण का निर्देश पहले कर ही आये हैं। अनन्तानुबन्धी विसंयोजना प्रकृति है इसलिए इसकी अजघन्य स्थितिके अनादि-अनन्त, अनादि-सान्त और सादि-सान्त ये तीन विकल्प बन जाते हैं। उनमें सादि-सान्त अजघन्य स्थितिका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है, क्योंकि संयोनना होने पर पुनः अन्तर्मुहूर्तमें इसकी विसंयोजना हो सकती है और उत्कृष्ट काल कुछ कम अर्धपुद्गल परिवर्तनप्रमाण है, क्योंकि विसंयोजनाके बाद संयोजना होने पर इतने काल तक जीव इसकी विसंयोजना न करे यह सम्भव है। छह नोकषायोंकी जघन्य स्थिति अन्तिम स्थितिकाण्डकके पतनकै समय होती है और उसमें अन्तर्मुहूर्त काल लगता है, इसलिए इसका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त कहा है। तथा अजघन्य स्थिति इसके पहले सर्वदा बनी रहती है और अभव्योंके इनका कभी अभाव होता, इसलिए इनकी अजघन्य स्थितिका काल अनादि-अनन्त और अनादि-सान्त कहा है। गति आदि मार्गणाओं में इसी प्रकार अपनी अपनी विशेषता जानकर यह काल घटित कर लेना चाहिए ।
अन्तर-सामान्य से मोहनीयका एक बार उत्कृष्ट स्थितिबन्ध होकर पुनः वह अन्तमुहूर्तके बाद हो सकता है और एकेन्द्रियादि पर्यायोंमें परिभ्रमण करता रहे तो अनन्तकालके अन्तरसे होता है, इसलिए इसकी
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