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________________ गा० २२] पदणिक्खेवे सामित्त - $ १६६. सामित्तं दुविहं-जहण्णमुक्कस्सं च। उक्कस्सए पयदं । दुविहो णिद्देसो-ओपेण आदेसेण च । तत्थ ओघेण मिच्छत्त-सोलसक० उक्क० वड्डी कस्स ? अण्णदरस्स जो चउट्ठाणियजवमज्झस्स उवरिमंतोमुहत्तं अंतोकोडाकोडिडिदिं बंधमाणो अच्छिदो, पुण्णाए द्विदिबंधगद्धाए उकस्ससंकिलेसं गदो तदो उक्कस्सहिदी पबद्धा तस्स उक्क० वड्डी । तस्सेव से काले उक्कस्समवट्ठाणं । उक. हाणी कस्स? अण्णद० उकस्सद्विदिसंतकम्मम्मि उकस्स. द्विदिखंडयं पाढंतस्स उक्क० हाणी । णवणोक० उक० वड्डी कस्स० ? अण्णद० तप्पा ओग्गजहण्णढिदिसंतकम्मिएण उकस्सकसायद्विदीए पडिच्छिदाए तस्स उक० वड्डी। तस्सेव से काले उक्क० अवट्ठाणं । उक्क० हाणी कस्स ? अण्णद० उक्क० द्विदिसंतकम्मम्मि जेण उक्करसहिदिकंड ओ पादिदो तस्स उक० हाणी। सम्मत्त-सम्मामि० उक्क० वड्डी maram प्राप्त हो सकता है। उदाहरणार्थ मिथ्यास्वकी अन्तःकोड़ाकोड़ी सागरकी स्थितिवाला जीव भी संक्लेशके कारण तदनन्तर समयमें सत्तर कोड़ाकोड़ी सागर प्रमाण उत्कृष्ट स्थितिको प्राप्त हो सकता है। इसी प्रकार सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी सागरपृथक्त्व स्थितिवाला जीव भी तदनन्तर समयमें अन्तर्मुहूर्तकम संत्तर कोड़ाकोड़ी सागर प्रमाण स्थितिको प्राप्त हो सकता है। इसी प्रकार यथायोग्य अन्य कर्मोंकी उत्कृष्ट वृद्धि जानना चाहिये । यह उत्कृष्ट वृद्धि हुई। इसके बाद जो अवस्थान होता है उसे वृद्धिसम्बन्धी उत्कृष्ट अवस्थान कहते हैं। इसी प्रकार उत्कृष्ट काण्डकघातका विचार करके उत्कृष्ट हानि और हानिसम्बन्धी उत्कृष्ट अवस्थान जान लेना चाहिये । ये उत्कृष्ट वृद्धि आदि तीनों पद चारों गतियोंके जीवोंके सम्भव हैं। किन्तु पंचेन्द्रिय तिर्यश्च अपर्याप्त और मनुष्यअपर्याप्त जीवोंके सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी उक्त पदों में से एक उत्कृष्ट हानि ही होती है। पानतादिकमें २६ प्रकृतियोंका एक अल्पतर पद है इसलिये २६ प्रकृतियोंको केवल उत्कृष्ट हानि होती है। किन्तु सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वके भुजगार और अल्पतर पद सम्भव हैं अतः इन दो प्रकृतियोंके उत्कृष्ट अवस्थानके विना दो पद होते हैं । अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धितकके देवोंके २८ प्रकृतियोंका एक अल्पतर पद ही सम्भव है इसलिये एक उत्कृष्ट हानि होती है । इसीप्रकार जहाँ भुजगार आदि जितने पद बतलाये हों उनका विचार करके अन्य मार्गणाओंमें भी ये उत्कृष्ट वृद्धि आदि पद जान लेना चाहिये। इसप्रकार प्ररूपणा अनुयोगद्वारका कथन समाप्त हुआ। १६. स्वामित्व दो प्रकारका है-जघन्य और उत्कृष्ट । उनमें से उत्कृष्टका प्रकरण है। उसकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-मोघ और आदेश । उनमें से ओघकी अपेक्षा मिथ्यात्व और सोलह कषायोंकी उत्कृष्ट वृद्धि किसके होती है ? जो कोई एक जीव चतुःस्थानिक यवमध्यके ऊपर अन्तर्मुहूर्त काल तक अन्तःकोडाकोडी सागरप्रमाण स्थितिको बाँधता हुआ अवस्थित है। पुन: स्थितिबन्धकालके पूर्ण होनेपर उत्कृष्ट संक्लेशको प्राप्त हुआ और तदनन्तर उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध किया उसके उत्कृष्ट वृद्धि होती है। तथा उसके तदनन्तर समयमें उत्कृष्ट अवस्थान होता है। उत्कष्ट हानि किसके होती है ? जिसने उस्कृष्ठ स्थितिसत्कर्मके रहते हुए उत्कृष्ट स्थितिखण्डका घात किया है उसके उत्कृष्ट हानि होती है। नौ नोकषायोंकी उत्कृष्ट वृद्धि किसके होती है ? नौ नोकषायोंकी तत्यायोग्य जघन्य स्थितिसत्कर्मवाले जिस जीवने कषायकी उत्कृष्ट स्थितिको नौ नोकषायरूपसे स्वीकार किया है उसके उत्कृष्ट वृद्धि होती है। तथा उसी जीवके तदनन्तर समयमें उस्कृष्ट भवस्थान होता है। उत्कृष्ट हानि किसके होती है ? जिस जीवने उत्कृष्ट स्थितिसत्कर्मके रहते हुए उत्कृष्ट स्थितिकाण्डकका घात किया है उसके उत्कृष्ट हानि होती है। सम्यक्त्व. और सम्यग्मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001410
Book TitleKasaypahudam Part 04
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1956
Total Pages376
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size10 MB
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