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________________ ५८ जयधवलासहिदोंकसायपाहुडे [हिदिविहत्ती ३ ण, अट्ठारसमस्स भुजगारसमयस्स विचारिज्जमाणसाणुवलंभादो। अप्पदर०अवविद० मिच्छत्तभंगो। भणंताणु० चउक० एवं चेव । णवरि अवत्तव्व० ओघं। सम्मत्त०-सम्मामि० अप्पद० जह० एगसमओ, उक्क० तेत्तीसं सागरो०देसूणाणि। सेसमोघं ५२. पढमढवि० एवं चेव । णवरि सव्वेसिमप्पद० जह० एगसममो, उक्क० सगढिदो देसूणा । विदियादि जाव सत्तमि ति मिच्छत्त० भुज० ज० एगस०, उक्क. वे समया । अप्प० ज० एगस०, उक्क० सगसगहिदी देसूणा । अवढि० भोघं । बारसक० शंका-यहाँपर अठारह समयप्रमाण भुजगारकाल क्यों नहीं प्राप्त होता है ? समाधान-नहीं, क्योंकि अठारहवाँ भुजगार समय विचार करनेपर बनता नहीं, अतः यहाँ उसे स्वीकार नहीं किया है। - बारह कषाय और नौ नोकषायोंकी अल्पतर और अवस्थित स्थितिविभक्तियोंका भंग मिथ्यात्वके समान है। अनन्तानुबन्धीचतुष्कका कथन इसी प्रकार जानना चाहिये । किन्तु इतनी विशेषता है कि अवक्तव्य स्थितिविभक्ति ओघके समान है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी अल्पतर स्थितिविभक्तिका जघन्यकाल एक समय और उत्कृष्ट काल कुछ कम तेतीस सागर है। शेष कथन ओघके समान है। विशेषार्थ-सामान्यसे नारकियोंमें मिथ्यात्वकी भुजगार स्थितिका उत्कृष्ट काल तीन या दो समय घटित करके बतलाया है। साथ ही यह सूचना भी की है कि यहाँ दो समयवाला पाठ प्रधान है। मालूम होता है कि यह सूचना बहुलताकी अपेक्षासे की है । एक तो असंज्ञी जीव नरकमें कम उत्पन्न होते हैं। उसमें भी पहले नरकमें ही उत्पन्न होते हैं। फिर भी सर्वत्र भुजगार स्थितिके तीन समय प्राप्त होना शक्य नहीं है । हाँ दो समय सातों नरकोंमें प्राप्त होते हैं। यही कारण है कि वीरसेन स्वामीने दो समयवाली मान्यताको मुख्यता दी। तथा नरकमें वेदकसम्यक्त्वका उत्कृष्ट काल कुछ कम तेतीस सागर है, अतः इस अपेक्षासे वहाँ मिथ्यात्वकी अल्पतर स्थितिका उत्कृष्ट काल कुल कम तेतीस सागर प्राप्त होता है। इसी प्रकार अन्य प्रकृतियोंकी अल्पतर स्थितिका उत्कृष्ट काल जानना चाहिये। तथा किसी भी विवक्षित कषाय और नोकषायकी भुजगार स्थितिके नरकमें सत्रह समय ही बनते हैं, क्योंकि संक्रमणकी अपेक्षा पन्द्रह, अद्धाक्षयकी अपेक्षा एक और संक्लेशक्षयकी अपेक्षा एक इस प्रकार एक भवकी अपेक्षा भुजगार के कुल सत्रह समय ही प्राप्त होते हैं। सामान्यसे जो भुजगारके उन्नीस समय बतलाये हैं वे दो पर्यायोंकी अपेक्षा घटित किये गये हैं । पर यहाँ केवल एक नरक पर्याय ही विवक्षित है, अतः सत्रह समयसे अधिक नहीं बनते । यही कारण है कि वीरसेन स्वामीने नरकमें भुजगारके अठारहवें समयका भी निषेध कर दिया है। किन्तु नौ नोकषायोंके सत्रह समय घटित करनेमें जो विशेषता ओघप्ररूपणामें बतला आये हैं वह यहाँ भी जान लेनी चाहिये। ६५२. पहली पृथिवीमें इसी प्रकार जानना चाहिये। किन्तु इतनी विशेषता है कि यहाँ सभी प्रकृतियोंकी अल्पतर स्थितिविभक्तिका जघन्यकाल एक समय और उत्कृष्टकाल कुछ कम अपनी स्थितिप्रमाण है। _दूसरी पृथिवीसे लेकर सातवीं पृथिवी तकके नारकियोंमें मिथ्यात्वकी भुजगार स्थितिविभक्तिका जघन्यकाल एक समय और उत्कृष्टकाल दो समय है। अल्पतर स्थितिविभक्तिका जघन्यकाल एक समय और उत्कृष्टकाल कुछ कम अपनी अपनी उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण है। तथा अवस्थित स्थितिविभक्तिका काल ओघके समान है। बारह कषाय और नौ नोकषायोंकी भुजगार स्थिति Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001410
Book TitleKasaypahudam Part 04
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1956
Total Pages376
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size10 MB
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