SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 218
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ गा० २२] वडिपरूवणाए अंतरं १६७ उक्क० सम्वेसि पि तेत्तीसं सागरो० देसूणाणि । एवं सत्तसु पुढवीसु । णवरि सग-सगहिदी देसूणा । ६३२६ तिरिक्खेसु मिच्छत्त-बारसक०-णवणोक० असंखेजभागवडि-अवट्टि जह० एगसमओ, उक्क० पलिदो० असंखेज०भागो । दोवड्वि-तिण्णिहाणी० ओघं । सम्मत्त० wwwarrammmmmmmmmmmm वृद्धि, तीन हानि और अवक्तव्यका जघन्य अन्तर अन्तमुहूत है और सभीका उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तेतीस सागर है। इसी प्रकार सातों पृथिवियोंमें जानना चाहिए। किन्तु इतनी विशेषता है कि कुछ-कम अपनी अपनी स्थिति कहनी चाहिए। विशेषार्थ-नरकमें मिथ्यात्व, बारह कषाय और नौ नोकषायोंकी असंख्यातभागवृद्धि और अवस्थितका जघन्य अन्तर एक समय है, क्योंकि जिसने उक्त प्रकृतियोंके असंख्यातभागवृद्धि या अवस्थित पदको किया है वह दूसरे समयमें अन्य पदको करके पुनः तीसरे समय में यदि इन पदोंको करता है तो इनका जघन्य अन्तर एक समय प्राप्त हो जाता है। संख्यातभागवृद्धि और संख्यातगुणवृद्धिका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है, क्योंकि संख्यातभागवृद्धि या संख्यातगुणवृद्धिके योग्य परिणामोंके एक बार होनेके बाद पुनः उनकी प्राप्ति अन्तर्मुहूर्तसे पहले सम्भव नहीं। संख्यातभागहानि और संख्यातगुणहानिका जघन्य अन्तर अन्तमुहूर्त है, क्योंकि इनके योग्य एक स्थितिकाण्डकके पतनके बाद दूसरे काण्डकके पतनमें अन्तर्मुहूत काल लगता है। तथा इन सब स्थितिविभक्तियोंका उत्कृष्ट अन्तर काल कुछ कम तेतीस सागर है, क्योंकि सम्यग्दृष्टि नारकीके कुछ कम तेतीस सागर तक एक असंख्यातभागहानिका पाया जाना सम्भव है, जिससे इनका अन्तरकाल उक्त प्रमाण प्राप्त होता है। किन्त उक्त प्रकृतियोंकी असंख्यातभागहानिका जघन्य अन्तर एक समय श्री उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त ओघके समान नरकमें भी बन जाता है, अतः इसके अन्तरको ओघके समान कहा है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वके सब पदोंके जघन्य अन्तरका खुलासा जिस प्रकार ओघप्ररूपणामें किया है उसी प्रकार यहाँ भी कर लेना चाहिये। केवल असंख्यातगुणहानिके जघन्य अन्तरके काल में फरक है। बात यह है कि नरकमें इन कर्मोंकी असंख्यातगुणहानि उद्वलनामें प्राप्त होती है। अब यदि दूसरी बार असंख्यातगुणहानि प्राप्त करना हो तो इन प्रकृतियोंकी सत्ता प्राप्त कराके पुनः उद्वलना कराना होगी जिसमें कम से कम पल्यका असंख्यातवाँ भाग काल लगता है, अतः नरकमें असंख्यातगुणहानिका जघन्य अन्तरकाल पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण प्राप्त होता है । तथा उत्कृष्ट अन्तर जो कुछ कम तेतीस सागर बतलाया है उसके दो कारण हैं-एक तो यह कि जिस वेदक सम्यग्दृष्टि नारकीके कुछ कम तेतीस सागर काल तक असंख्यातभागहानि ही होती रहती है उसके उतने समय तक अन्य कोई स्थितिविभक्ति नहीं होती और दूसरा यह कि नरकमें जाकर जिसने उद्वलना कर दी है और अन्तमें पुनः उनको प्राप्त कर लिया है उसके मध्यके काल में कोई भी स्थिति विभक्ति नहीं होती। किन्तु अपने अपने पदके अन्तरकालको लाते समय प्रारम्भमें और अन्तमें उस पदकी प्राप्ति करानी चाहिये। हमने यहाँ स्थूल रूपसे ही निर्देश किया है। तथा इसी प्रकार अनन्तानुबन्धीके सब पदोंका भी जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर काल विचार कर घटित कर लेना चाहिये। सातों नरकोंमें भी इसी प्रकार समझना चाहिये, किन्तु सब प्रकृतियोंके सब पदोंका जो उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तेतीस सागर कहा है उसके स्थान में कुछ कम अपनी अपनी उत्कृष्ट स्थिति कहनी चाहिये। यहाँ इतना निर्देश कर देना आवश्यक है कि आगे अन्य मार्गणाओंमें सब पदोंके अन्तरका खुलासा न करके जिन पदोंके अन्तरमें विशेषता होगी उन्हींका खुलासा करेंगे। ६३२६ तियंचोंमें मिथ्यात्व, बारह कषाय और नौ नोकषायोंकी असंख्यातभागवृद्धि और अवस्थितका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ठ अन्तर पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है। दो Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001410
Book TitleKasaypahudam Part 04
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1956
Total Pages376
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy