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________________ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [हिदिविहत्ती ३ सम्मामि०, सव्वपदाणमोघं । णवरि असंखेजगुणहाणी० जह० पलिदो० असंखेजदिभागो । उक० उवड्डपोग्गलपरियढें । अणंताणु० चउक० असंखेजभागवड्डि-अवढि० जह० एगस०, उक० पलिदो० असंखेजदिमागो। असंखेजमाणहाणी० जह० एगस०, उक्क० तिण्णि पलिदो० देसूणाणि । सेसपदा ओघं ।। ३२७. पंचिंदियतिरिक्खतियम्मि मिच्छत्त-बारसक०-णवणोक० असंखेजभागवड्डि-अवट्ठि• जह० एगसमओ। संखेजभागवड्डि-संखेजगुणवड्डि-सखेजगुणहाणीणं जह० अंतोमु०, उक्क० सव्वेसि पि पुवकोडिपुधत्तं । असंखेजभागहाणी० जह० एगस०, उक. अंतोमु० । संखेजभागहाणी० जह० अंतोमु०, उक्क० तिण्णि पलिदो० सादिरेयाणि । वृद्धि और तीन हानियोंका अन्तर ओघके समान है। सम्यक्त्व और सम्मग्मिथ्यात्वके सब पदोंका अन्तर ओघके समान है। किन्तु इतनी विशेषता है कि असंख्यातगुणहानिका जघन्य अन्तर पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण और उत्कृष्ट अन्तर कुछकम अर्धपुद्गलपरिवर्तन प्रमाण है । अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी असंख्यातभागवृद्धि और अवस्थितका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है। असंख्यातभागहानिका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तीन पल्य है। शेष पद ओघके समान है। विशेषार्थं-तिचंचों मे मिथ्यात्व, सोलह कषाय और नौ नोकषायोंकी असंख्यातभागहानिका उत्कृष्ट काल पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है, अतः यहाँ उक्त प्रकृतियोंकी असंख्यातभागवृद्धि व अवस्थितका उत्कृष्ट अन्तरकाल उक्त प्रमाण प्राप्त होता है । यद्यपि तीन पल्यकी आयुवाले तिर्यंच में तीन पल्य तक असंख्यातभागहानि होती है परन्तु ऐसे जीवके तिर्यंचगतिमें दुबारा असंख्यातभागवृद्धि व अवस्थान नहीं होता, अतः यह काल न ग्रहण कर एकेन्द्रियोंकी अपेक्षा पल्यका असंख्यातवाँ भागही ग्रहण करना चाहिए। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी असंख्यातगुणहानिका जघन्य अन्तर काल पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है। जिसका खुलासा नारकियोंके समान यहाँ भी कर लेना चाहिये । तथा उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम अर्धपुद्गलपरिवर्तनप्रमाण है। बात यह है कि तियेच पर्याय में निरन्तर रहनेका उत्कृष्ट काल असंख्यातपुद्गलपरिवर्तन है। किन्तु जिसने सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी सत्ता प्राप्त कर ली है वह संसारमें अर्धपुद्गलपरिवर्तनसे अधिक काल तक नहीं रहता। अब ऐसा तियेच लो जिसने प्रारम्भमें उक्त प्रकृतियोंकी उद्घ लना करते हुए असंख्यात. गुणहानि की । पुनः वह कुछ कम अर्धपुद्गलपरिवर्तन काल तक संसारमें घूमता रहा और कुछ कालके शेष रह जाने पर उसने उपशमसम्यक्त्वपूर्वक पुनः सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी सत्ता प्राप्त की तथा मिथ्यात्व में जाकर उद्वलना द्वारा दूसरी बार असंख्यातगुणहानि की इस प्रकार उक्त दो प्रकृतियोंकी असंख्यातगुणहानिका उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम अर्धपुद्गल परिवर्तनप्रमाण प्राप्त हो जाता है। अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी असंख्यातभागहानिका उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम तीन पल्यप्रमाण है सो यह तिथंचोंमें अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजनाके उत्कृष्ट कालकी अपेक्षासे कहा है। शेष कथन सुगम है। ६३२७. पंचेन्द्रिय, पंचेन्द्रियपर्याप्त और योनिमती इन तीन प्रकारके तिर्यंचोंमें मिथ्यात्व, बारह कषाय और नौ नोकषायोंकी असंख्यातभागवृद्धि और अवस्थितका जघन्य अन्तर एक समय तथा संख्यातभागवृद्धि, संख्यातगुणवृद्धि और संख्यातगुणहानिका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है तथा सभीका उत्कृष्ट अन्तर पूर्वकोटिपृथक्त्व है। असंख्यातभागहानिका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। संख्यातभागहानिका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001410
Book TitleKasaypahudam Part 04
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1956
Total Pages376
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size10 MB
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