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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[हिदिविहत्ती ३ परूविजमाणे पयदहिदि मोत्तण अण्णविदीहि सम्मत्तं पडिवज्जमाणाणं ट्ठिदिअंतरुवलंमादो। परिणामंतरे' पुण परूविज्जमाणे असंखेज्जलोगमेत्तमंतरं होदि, परिणामाणमसंखेज्जलोगपमाणत्तवलंभादो । ण च द्विदिवियप्पा असंखे०लोगमेत्ता अत्थि, जेण तदंतरमसंखेज्जलोगमेत्तं होज्ज । किं च, ण परिणामभेदेण णियमेण द्विदिबंधभेदो; असंखे०. लोगमेचट्ठिदिवंधज्झवसाणट्ठाणेहि एकिस्से चेव द्विदीए बंधुवलंभादो। तदो द्विदिबंधउझवसाणट्ठापेसु अंतराविदे वि अंतरमंगुलस्स असंखे०भागमेत्तं चेव होदि त्ति ।
समाधान नहीं, क्योंकि स्थितिके अन्तरका कथन करनेपर प्रकृत स्थितिको छोड़कर अन्य स्थितियोंके द्वारा सम्यक्त्वको प्राप्त होनेवाले जीवोंके स्थितिका अन्तर प्राप्त होता है। किन्तु परिणामोंके अन्तरकी अपेक्षा कथन करनेपर असंख्यात लोकप्रमाण अन्तर होता है, क्योंकि परिणाम असंख्याल लोकप्रमाण पाये जाते हैं। परन्तु स्थितिविकल्प असंख्यात लोकप्रमाण नहीं हैं, जिससे स्थित्यन्तर असंख्यात लोकप्रमाण होवे । दूसरी बात यह है कि परिणामभेदसे नियमतः स्थितिबन्धमें भेद नहीं होता है, क्योंकि असंख्यात लोकप्रमाण स्थितिबन्धाध्यवसायप्रमाण स्थानोंके द्वारा एक ही स्थितिका बन्ध पाया जाता है। अतः स्थितिबन्धाध्यवसायस्थानोंका अन्तर कराने पर भी स्थित्यन्तर अंगुलके असंख्यातवें भागप्रमाण ही होता है। यही कारण है कि यहाँ असंख्यात लोकप्रमाण अन्तरकालकी प्ररूपणा नहीं की।
विशेषार्थ- यहाँ सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी अवस्थित स्थितिविभक्तिका जघन्य अन्तर काल एक समय और उत्कृष्ट अन्तरकाल अंगुलके असंख्यातवें भागप्रमाण बतलाया है। सो इनमेंसे जघन्य अन्तरकाल एक समय तो स्पष्ट ही है। अब रही उत्कृष्ट अन्तरकालकी बात सो इसका खुलासा करते हुए वीरसेन स्वामीने स्वयं दो शंकाएँ उठाई हैं। पहली शंका तो यह है कि जब स्थितिके कुल विकल्प संख्यात हजार सागर प्रमाण हैं तब उत्कृष्ट अन्तरकाल संख्यात हजार सागर प्रमाण होना चाहिये। बात यह है कि जो सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी स्थितिसे मिथ्यात्वकी एक समय अधिक स्थितिवाला जीव सम्यग्दर्शनको प्राप्त होता है उसके सम्यग्दर्शनको प्राप्त होनेके प्रथम समयमें उक्त दोनों प्रकृतियोंकी अवस्थित स्थितिविभक्ति होती है। यदि इससे अधिक स्थितिवाला जीव सम्यग्दर्शनको प्राप्त होता है तो उसके अवस्थित स्थितिविभक्ति नहीं होती। अब यदि सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी एक बार अवस्थित स्थितिके बाद जीव सम्यक्त्व और सम्यग्मिध्यात्वकी स्थितिसे मिथ्यात्वकी दो समय आदि अधिक स्थितिके साथ निरन्तर सम्यग्दर्शनको प्राप्त होते रहें तो स्थितिके जितने विकल्प हैं उतनी बार ऐसा हो सकता है तदनन्तर अवश्य ही सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी अवस्थित स्थिति प्राप्त हो जायगी। अतएव अवस्थित स्थितिका उत्कृष्ट अन्तरकाल संख्यात हजार सागरसे अधिक नहीं प्राप्त होना चाहिये। यह पहली शंका है जिसका वीरसेनस्वामीने जो समाधान किया है उसका भाव यह है कि जो सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी सत्तावाले जीव मिथ्यात्वसे सम्यक्त्वको प्राप्त होते हैं उनमें दो समय अधिक आदि स्थितियोंके साथ सम्यक्त्वको जीव पुनः पुनः प्राप्त होते रहते हैं इसलिये अवस्थित स्थितिका अन्तर काल संख्यात हजार सागर प्रमाण प्राप्त न होकर अंगुलके असंख्यातवें भागप्रमाण प्राप्त होता है। दूसरी शंकाका भाव यह है कि एक एक स्थितिके स्थितिबन्धाध्यक्सायस्थान असंख्यात लोकप्रमाण होते हैं। तथा कुल स्थितिविकल्प संख्यात हजार सागर प्रमाण होते हैं। अब यदि सब स्थितियोंके बन्धके योग्य स्थितिबन्धाध्यवसाय
१ आ.प्रतौ-मंतरेण' इति पाठः ।
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