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________________ गा० २२] विदिविहत्तीए द्विदिसंतकम्मट्ठाणपरूवणा ३२१ समखंडं कादूण दिण्णे तत्थ एगखंडमाषाहाकंडयमिदि भणिदं होदि । एत्थ एगमावाहाकंडयसमयणं जाव झीयदि ताव एगा चेव आवाहा होदि। संपुण्णे झीणे आवाहा समयूणा होदि । णिसेगट्टिदो पुण उभयस्थ समाणा । ६१०, आवाहाए समयूणाए जादाए तम्मि चेव समए णिसेगहिदी वि पुव्वणिसैगहिदिं पेक्खिदण समयूणा होदि त्ति के वि भणंति, तण्ण घडदे,) एगसमयम्मि दोण्हं द्विदीणं अधहिदीए गलणप्पसंगादो। तेणेदं मोत्तूण एवं घेत्तव्वं उकस्सावाधं धुवं कादूण बंधमाणो एगसमएण एगाबाहाकंडयमेतद्विदीओ ओसकि दूण जदि बंधदि तो उक्कस्साबाहाचरिमसमयम्मि पढमणिसेगं णिसिंचिदूण उवरि णिरंतरं कम्मणिसेगं करेदि । दोण्णि ओदरिय बंधमाणो उकस्साबाधादुचरिमसमयप्पहुडि कम्मक्खंधे णिसिंचदि । एवं गंतूण एगवारेण उक्स्सहिदीदो ओसरिदूण अंतोकोडाकोडिद्विदि बंधमाणो अंतोमुहुत्तमावाधं मोत्तूण कम्मणिसेगं करेदि त्ति । संपहि धुवहिदीदो हेट्ठिमअंतोकोडाकोडिमेत्तट्ठाणवियप्पेसु णिरंतरमुप्पाइजमाणेसु जहा सण्णिकासम्मि सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताणं हदसमुप्पत्तियकंडयमस्सिदूण णिरंतरं हाणपरूवणा कदा तथा एत्थ वि मिच्छत्तस्स णिरंतरहाणपरूवणं कादण ओदारेदव्वं जाव सागरोवममेत्तहिदी चेद्विदा त्ति । पुणो एदिस्से हेटा एइंदियहिदि बंधमस्सिदूण समयूण-दुसमयूणादिकमेण बंधाविय ओदारेदव्वं जाव स्थितियोंके समान खण्ड करके देयरूपसे देने पर वहाँ एक खण्डप्रमाण आबाधाकाण्डक प्राप्त होता है यह इसका तात्पर्य है। यहाँ एक समय कम आबाधाकाण्डकप्रमाण स्थितियोंके क्षीण होने तक एक ही आबाधा होती है। तथा एक आबाधाकाण्डकके पूरे क्षीण होने पर आबाधा एक समय कम होती है। परन्तु निषेकस्थिति दोनों जगह समान रहती है। ६६१०. यहाँ कितने ही आचार्य ऐसा कथन करते हैं कि आबाधाके एक समय कम हो जाने पर उसी समयमें निषेकस्थिति भी पहलेकी निषेक स्थितिको अपेक्षा एक समय कम होती है। पर उनका ऐसा कहना घटित नहीं होता, क्योंकि ऐसा मानने में दो स्थितियोंकी अधःस्थितिगलनाका प्रसङ्ग प्राप्त होता है। अतः इस अर्थको छोड़कर इस प्रकार ग्रहण करना चाहिये कि उत्कृष्ट आबाधाको ध्रुव करके बाँधनेवाला जीव यदि एक समयके द्वारा एक आबाधाकाण्डकप्रमाण स्थितियोंको घटाकर बाँधता है तो उत्कृष्ट आबाधाके अन्तिम समयमें प्रथम निषेकको देकर ऊपर कर्मनिषकोंका निरन्तर बटवारा करता है। तथा दो आबाधाकाण्डक प्रमाण स्थितियोंको घटाकर बाँधनेवाला जीव उत्कृष्ट आबाधाके द्विचरम समयसे लेकर कर्मस्कन्धोंका बटवारा करता है। इस प्रकार जाकर एक साथ उत्कृष्ट स्थितिसे उतरकर अन्तःकोडाकोडी सागरप्रमाण स्थितिका बन्ध करनेवाला जीव अन्तमुहर्त आबाधा छोड़कर शेष स्थितिप्रमाण कर्मनिषेक करता है। अब ध्रुवस्थितिसे नीचे अन्तःकोड़ाकोड़ी सागरप्रमाण स्थानविकल्पोंके निरन्तर उत्पन्न करने पर जिस प्रकार सन्निकर्षानुगममें सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी हतसमुत्पत्तिककाण्डकका आश्रय लेकर निरन्तर स्थानप्ररूपणा की है उसी प्रकार यहाँ भी मिथ्यात्वके निरन्तर स्थानोंकी प्ररूपणा करके एक सागरप्रमाण स्थितिके शेष रहने तक स्थिति घटाते जाना चाहिए । पुनः इस स्थितिके नीचे एकेन्द्रियके स्थितिबन्धका आश्रय लेकर एक समय कम, दो समय कम आदि क्रमसे बँधाकर पल्यके असंख्यातवें भाग कम एक ४० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001410
Book TitleKasaypahudam Part 04
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1956
Total Pages376
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size10 MB
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