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________________ ३२० जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [द्विदिविहत्ती ३ ६६०९. एदम्स सुत्तस्स परूवणं कस्मामो । तं जहा–मिच्छत्तस्से त्ति वयणेण सेसपयडिपडिसेहो कदो । द्विदिसंतकम्मट्ठाणाणि त्ति वयणेण पयडि-पदेसाणुभागसंतकम्मट्ठाणाणं पडिसेहो कदो। उक्कस्सियं द्विदिमादि कादूणे त्ति भणिदे सत्तरिसागरोवमकोडाकोडिमेत्तहिदिसंतकम्ममादि कादणे त्ति भणिदं होदि । सत्तरिसागरोवमकोडाकोडिमेत्तद्विदीओ मिच्छत्तस्सुक्कस्सहिदिबंधो । कधं तस्स बंधपढमसमए वट्टमाणस्स हिदिसंतववएसो ? ण एस दोसो, अत्थित्तविसिट्ठहिदीए द्विदिसते ति गहणादो। तेण मिच्छत्तस्स सत्तवाससहस्समावाहं काऊण सत्तरिसागरोवमकोडाकोडी बंधमाणस्स तमेगं ठाणं । समयूणं बंधमाणस्स विदियहाणं । एवं विसमयूणमादि कादूण उक्कस्समाबाहं धुवं कादूण ओदारेदव्वं जाव समयूणावाहाकंडयमेतद्विदीओ ओदिण्णाओ त्ति । पुणो संपुण्णाबाहाकंडयमेतद्विदीओ ओसरिदूण बंधमाणो उक्कस्सावाहं समयूणं कादूण कम्मक्खंधे णिसिंचदि तमण्णं हाणं । एदेण कमेण जाणिदृण ओदारेदव्वं जाव धुवट्ठिदिसण्णिदअंतोकोडाकोडि त्ति । एदाणि बंधमासिदूण णिरंतरं द्विदिसंतकम्मट्टाणाणि लद्धाणि । णवरि एगेगाबाधासमए झीयमाणे उवरि पलिदोवमस्स असंखेजदिभागपमाणमेगेगावाधाकंडयमेतद्विदीओ झीयंति । तस्स को पडिभागो ? उक्कस्साबाहासत्तवाससहस्साणं समए सगलिंदियसत्तरिसागरोवमकोडाकोडीओ $ ६०९. अब इस सूत्रका कथन करते हैं। जो इस प्रकार है-सूत्रमें 'मिच्छत्तस्स' इस वचनके द्वारा दूसरी प्रकृतियोंका निषेध किया है। 'हिदिसंतकम्मट्ठाणाणि' इस वचनके द्वारा प्रकृति, प्रदेश और अनुभागसत्कर्मस्थानोंका निषेध किया है। 'उक्कस्सियं ट्ठिदिमादि कादूण' ऐसा कहने पर उसका तात्पर्य 'सत्तर कोड़ाकोड़ीसागरस्थितिसत्कर्मसे लेकर' यह है। शंका-चूँकि मिथ्यात्वका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध सत्तर कोड़ाकोड़ीसागर स्थितिप्रमाण होता है, अतः बन्धके प्रथम समयमें उसे स्थितिसत्त्व यह संज्ञा कैसे प्राप्त होती है ? समाधान—यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि अस्तित्वयुक्त स्थितिका स्थितिसत्त्वरूपसे ग्रहण किया है। अतः मिथ्यात्वकी सात हजार वर्षप्रमाण आबाधा करके सत्तर कोडाकोड़ीसागरप्रमाण बाँधनेवाले जीवके वह पहला स्थान होता है। तथा एक समय कम बांधनेवाले जीवके दूसरा स्थान होता है। इस प्रकार दो समय कमसे लेकर तथा उत्कृष्ट आबाधाको ध्रुव करके एक समय कम आबाधाकाण्डकप्रमाण स्थितियोंके कम होने तक घटाते जाना चाहिये । पुनः संपूर्ण आबाधाकाण्डकप्रमाण स्थितियोंको घटाकर बाँधनेवाला जीव उत्कृष्ट आबाधामें एक समय कम करके कम स्कन्धोंका बटवारा करता है। यह अन्य स्थान होता है। इसी क्रमसे जानकर ध्रुवस्थिति संज्ञावाली अन्तःकोड़ाकोड़ीसागरप्रमाण स्थितिके प्राप्त होने तक घटाते जाना चाहिये । बन्धकी अपेक्षा ये निरन्तर स्थितिसत्कम स्थान प्राप्त हुए। किन्तु इतनी विशेषता है कि आबाधाके एक एक समयके क्षीण होनेपर ऊपरकी पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण एक एक आबाधकाण्डकप्रमाण स्थितियोंका क्षय होता है। इसका अर्थात् पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण आबाघाकाण्डकका प्रतिभाग क्या है ? उत्कृष्ट आबाधाके सात हजार वर्षों के समयोंमें सकलेन्द्रियोंकी सत्तर कोड़ाकोड़ीसागरप्रमाण Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001410
Book TitleKasaypahudam Part 04
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1956
Total Pages376
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size10 MB
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