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________________ १३ गा० २२] हिदिविहत्तीए उत्तरपयडिभुजगारसामित्तं लब्भदे १ मिच्छाइट्टिणा सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताणि उव्वेल्लंतेण मिच्छत्तद्विदिसंतादो हेट्ठा कदसम्मत्त-सम्मामिच्छत्तहिदिसंतकम्मेण सम्मत्ताहिएहेण मिच्छाइटिचरिमविदिखंडयं फालेदण सम्मत्तहिदिसंतादो कयसमउत्तरमिच्छत्तहिदिसंतकम्मिएण वेदगसम्मत्ते गहिदे सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताणमवहिदविहत्तो होदि, पहाणोकयकालत्तादो। णिसेगाणं पहाणत्ते संते वेदगसम्मत्तं पडिवजमाणेसु समढिदिसंतकम्मिएसु सव्वेसु अवट्ठिदविहत्ती होदि सम्मत्तस्स । सम्मामिच्छत्तस्स पुण ण होदि । तेण दोण्हं पि पुवुद्दिट्टपदेसे चेव अवडिदभावो वत्तव्यो । ण च वेदगसम्मत्ताहिमुहमिच्छाइटिम्मि हिदिखंडयघादोणस्थि चेवे त्ति पञ्चवट्ठाण जुत्तं, वेदयसम्मत्तं पडिवजमाणम्मि वि कहिं पि विसोहियवसेण अणियमेण द्विदिकंडयसिद्धोए बाहाणुवलंभादो। कुदो एवं णवदे ? एदम्हादो चेव उच्चारणादो । दोण्हमुच्चारणाणं कधं ण विरोहो ? ण, विरोहो णाम एयणयविसओ। दो वि उच्चारणाओ पुण भिण्णणयणिबंधणाओ, तम्हा ण विरोहो ति । एवं सुक्कलेस्साए वत्तव्वं । समाधान-सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी उद्वेलना करनेवाले जिसने मिथ्यात्वके स्थितसत्त्वसे सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वके स्थितिसत्त्वको कम कर दिया है, जो सम्यग्दर्शनके सम्मुख है और जिसने मिथ्यात्वके अन्तिम स्थितिकाण्डकका घात करके मिथ्यात्वके स्थितिसत्त्वको सम्यक्त्वके स्थितिसत्त्वसे एक समय अधिक किया है, ऐसे मिथ्यादृष्टि जीवके वेदकसम्यक्त्वको ग्रहण करनेपर सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी अवस्थित स्थितिविभक्ति होती है, क्योंकि यहाँपर कालकी प्रधानता है। निषेकोंकी प्रधानता होनेपर वेदकसम्यक्त्वको प्राप्त होनेवाले समान स्थितिसत्कर्मवाले सभी जीवों में सम्यक्त्वकी अवस्थित स्थितिविभक्ति होती है। परन्तु सम्यग्मि यात्वकी नहीं होती, अतः इन दोनोंकी अबस्थितविभक्तिका कथन पूर्वोक्त स्थानमें ही करना चाहिये। यदि कहा जाय कि वेदकसम्यक्त्वके अभिमुख हुए मिथ्यादृष्टि जीवमें स्थितिकाण्डकघात होता ही नहीं सो ऐसा निश्चय करना भी ठीक नहीं है, क्योंकि वेदकसम्यक्त्वको प्राप्त होनेवाले किसी भी जीव में विशुद्धिके अनुसार अनियमसे स्थितिकाण्डकघातकी सिद्धि होनेमें कोई बाधा नहीं पाई जाती है। शंका-यह बात किस प्रमाणसे जानी जाती है ? समाधान-इसी उच्चारणासे जानी जाती है। शंका-दोनों उच्चारणाओंमें परस्पर विरोध कैसे नहीं माना जाय ? समाधान-नहीं,क्योंकि,विरोध एक नयको विषय करता है । परन्तु दोनों उच्चारणाएँ भिन्न भिन्न नयके निमित्तसे प्रवृत्त हैं, अतः कोई विरोध नहीं है। तात्पर्य यह है कि जब एक ही दृष्टिसे विरुद्ध दो बातें कही जाती है तब विरोध आता है। किन्तु इन दोनों उच्चारणाओंका कथन भिन्नभिन्न दृष्टिसे किया गया है. अतः कोई विरोध नहीं आता। इसी प्रकार शुक्ललेश्यामें कहना चाहिये। विशेषार्थ-आनतादिकमें सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वके अवस्थितके बिना तीन पद होते हैं और अवस्थित सहत चार पद होते हैं। इस प्रकार यहाँ वीरसेन स्वामीने दो मतोंका उल्लेख किया है। पहला मत प्राचीन उच्चारणाका है और दूसरा मत उस उच्चारणाका है जिसका वीरसेन स्वामीने सर्वत्र उपयोग किया है। यहाँ पर वीरसेन स्वामीने पहले मतके समर्थन या निषेधमें तो कुछ भी नहीं लिखा है। हाँ दूसरे मतका उन्होंने अवश्य समर्थन किया है। पहले तो उन्होंने यह बतलाया है कि यह लेखकोंकी भूल नहीं है। यदि लेखकोंकी भूल होती तो एक जगह Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001410
Book TitleKasaypahudam Part 04
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1956
Total Pages376
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size10 MB
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