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________________ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ हिदिविहत्ती ३ $ २२. पंचिं०तिरि०अपज० छब्बीसं पयडीणं भुज०-अप्प० अवढि० सम्मत्तसम्मामिच्छत्ताणमप्पदरं० कस्स ? अण्णद० । एवं मणुसअपज०-सम्बएइंदिय-सव्वविगलिंदिय-पंचि अपञ्ज०-पंचकाय-तसअपज-मदि०-सुद-विहंग-मिच्छादि० असण्णि त्ति। ६२३. ओणददि जाव उवरिमगेवजो त्ति मिच्छत्त-बारसक०-णवणोक० अप्पदर० कस्त० १ अण्णद० सम्मादिहिस्स मिच्छाइद्विस्स बा । अणंताणु०चउक. अप्पदर०-अवत्तयाणमोघं। सम्मत्त-सम्मामि० भुज-अप्प-अवत्तव्याणमोघं। एदं चिराणुच्चारणमस्सिदण भणिदं । एदीए उच्चारणाए पुण सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताणमोघमिदि भणिदं । तेण अवढिदेण वि होदव्वं, अण्णहा ओघत्ताणुववत्तीदो । ण च एसो लिहताणं दोसो; समुक्तितणाए वि सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताणमोघमिदि परूविदत्तादो। कथमेत्थ पुण अवद्विदभावो विशेषार्थ- यहाँ पर उच्चारणचार्यने अनन्तानुबन्धीकी अवक्तव्यस्थितिविभक्ति मिथ्यादृष्टिके समान सासादनसम्यग्दृष्टि के भी बतलाई है सो इसका कारण यह है कि जिसने अनंतानु बन्धीकी विसंयोजना की है ऐसा उपशमसम्यग्दृष्टि जीव भी सासादन गुणत्थानको प्राप्त होता है यह बात कसायपाहुडकार और यतिवृषभ आचार्यको इष्ट है, अतः सासादन गुणस्थानमें अनन्तानुबन्धीका अवक्तव्य पद बन जाता है। बात यह है कि संक्रमित द्रव्यका एक आवलितक अपकर्षण और उदीरणा आदि काम नहीं होते यह एक मत है और दूसरा मत यह है कि अनन्तानुबन्धीरूपसे संक्रमित द्रव्यका सासादनमें उसी समय अपकर्षण और उदीरणा सम्भव हैं। गुणधर आचार्य और यतिवृषभ आचार्य इसी दूसरे मतको मानते हैं। तदनुसार जिसने अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजना की है ऐसा कोई उपशमसम्यग्दृष्टि जीव सासादनमें आता है तो उसके उसी समय प्रत्याख्यानावरण आदि द्रव्यका अनन्तानुबन्धीरूपसे संक्रमित हो जाता है। और संक्रमित द्रब्यकी उदीरणा भी हो जाती है, अतः सासादन गुणस्थानमें अनन्तानुबन्धीका अवक्तव्य पद बन जाता है। यह कथन नैगम नयकी मुख्यतासे है। शेष कथन सुगम है। २२. पंचेन्द्रिय तिर्यंच अपर्याप्तकोंमें छब्बीस प्रकृतियोंकी भुजगार, अल्पतर और अवस्थित विभक्तियाँ होती हैं । सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी अल्पतरविभक्ति किसके होती है ? किसी भी जीवके होती है। इसी प्रकार मनुष्य अपर्याप्त, सब एकेन्द्रिय, सब विकलेन्द्रिय, पंचेद्रिय अपर्याप्त पाँचों स्थावरकाय, त्रस अपर्याप्त, मत्यज्ञानी, श्रुताज्ञानी, विभंगज्ञानी, मिथ्यादृष्टि और असंज्ञी जीवोंके जानना चाहिए। ६२३. आनतकल्पसे लेकर उपरिम अवेयक तकके देवोंमें मिथ्यात्व, बारह कषाय और नौ नोकषायोंकी अल्पतर स्थितिविभक्ति किसके होती है ? किसी भी सम्यग्दृष्टि और मिथ्यादृष्टि जीवके होती है । अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी अल्पतर और अवक्तव्य स्थितिविभक्ति ओघके समान है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी भुजगार,अल्पतर और अवक्तव्य विभक्ति ओघके समान है। यह कथन पुरानी उच्चारणाका आश्रय लेकर किया है। प्रकृति उचारणामें तो सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका कथन ओघके समान है ऐसा कहा है, इसलिए सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी अवस्थितविभक्ति भी होनी चाहिये, अन्यथा सम्यक्त्व और सम्मग्मिथ्यात्वके ओघपना नहीं बन सकता है । यदि कहा जाय कि यह लिखनेवालोंका दोष है सो भी बात नहीं है, क्योंकि समुकीर्तनामें भी सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका कथन ओघके समान है ऐसा कहा है। शंका-तो फिर सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वमें अवस्थितिविभक्तिपना कैसे प्राप्त होता है Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001410
Book TitleKasaypahudam Part 04
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1956
Total Pages376
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size10 MB
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