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________________ १३६ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [हिदिविहत्ती ३ उवरिमजीवेसुप्पादिय असंखेज्जभागवड्डी वत्तव्वा । ____$२३५. संपहि संखेज्जभागवड्डी परत्थाणेण वुच्चदे ।तं जहा-एइंदियो पंचिंदियसंतकम्मं घादयमाणो बेइंदियादीणं तप्पाओग्गजहण्णबंधस्स हेट्ठा पलिदोवमस्स संखेज्जदिभागमेत्तं धादिय बेइंदियादिसु उववण्णो तस्स पढमसमए संखेज्जभागवड्डी होदि; तप्पाओग्गजहण्णहिदिबंधे उक्कस्ससंखेज्जेण खंडिदे तत्थ एगखंडमेत्तसमयाणं वड्डिदंस. णादो। पुवधादिदसंतकम्मस्स हेट्ठा एगसमयं घादिय बेइंदियादिसुप्पज्जिय तत्तियं चेव वडिदण बद्ध संखेज्जभागवड्डी चेव होदि । एवं विसमयूण-तिसमयणादिकमेण णेदव्वं जाव बेइंदियादितप्पाओग्गजहण्णहिदिबंधादो हेट्ठा रूवृणतदद्धमेत्तेण पंचिंदियट्टिदिं घादिय बेइंदियादिसुप्पण्णपढमसमए तप्पाओग्गजहण्णहिदि बंधमाणस्स संखेज्जभागवड्डी चेव होदि । तप्पाओग्गजहण्णहिदिबंधस्स संपुण्णमद्धं जाव पावेदि ताव सण्णिपंचिंदियट्ठिदिसंतकम्मं किण्ण धादिदं ? ण, सगलमद्धमत्तं धादिय बेइंदियादिसुप्पज्जिय वड्डिदण बंधमाणस्स संखेज्जगुणवड्डीए समुप्पत्तीदो । एवं बेइंदियादीणं पि वत्तव्वं ।। ६२३६. संपहि संखेज्जगुणवड्डी उच्चदे। तं जहा–एइंदिओ पंचिंदियसंतकम्म घादयमाणो बेइंदियादिसुप्पज्जिय बज्झमाणजहण्णहिदिबंधादो हेट्ठा सगलमद्धमत्तं धादिय पुणो बेइंदियादिसुप्पण्णपढमसमए सव्वजहण्णहिदि बंधमाणस्स संखेज्जगुणवड्डी होदि । उत्पन्न कराके असंख्यातभागवृद्धि कहनी चाहिये । ६२३५. अब परस्थानकी अपेक्षा संख्यातभागवृद्धिको बतलाते हैं। जो इस प्रकार हैपंचेन्द्रियसत्कर्मका घात करनेवाला जो कोई एक एकेन्द्रिय जीव द्वीन्द्रियादिकके योग्य जघन्य बन्धके नीचे पल्योपमके संख्यातवें भागका घात करके द्वीन्द्रियादिकमें उत्पन्न हुआ उसके उत्पन्न होनेके प्रथम समयमें संख्यातभागवृद्धि होती है, क्योंकि द्वीन्द्रियादिकके योग्य जघन्य स्थितिबन्धमें उत्कृष्ट संख्यातका भाग देनेपर जितने खण्ड प्राप्त हों उनमें से एक खण्डप्रमाण समयोंकी वहाँ वृद्धि देखी जाती है । तथा पहले घाते हुए सत्कर्मके नीचे एक समयका घात करके और द्वीन्द्रियादिकमें उत्पन्न होकर जो जीव उतनी स्थितिकी ही वृद्धि करके बन्ध करता है उसके संख्यात भागवृद्धि ही होती है। इसीप्रकार दो समय कम, तीन समयकम आदि क्रमसे ले जाना चाहिये। यह क्रम, द्वीन्द्रियादिकके योग्य जघन्य स्थितिबन्धसे नीचे एककम उनकी जघन्य आधी स्थिति प्राप्त होने तक चलता है। इसप्रकार पंचेन्द्रियकी स्थितिका घात करके जो एकेन्द्रिय द्वीन्द्रियादिकमें उत्पन्न हुआ उसके उत्पन्न होनेके प्रथम समयमें द्वीन्द्रियादिकके योग्य जघन्य स्थितिका बन्ध करते हुए संख्यातभागवृद्धि ही होती है। शंका-द्वीन्द्रियादिके योग्य जघन्य स्थितिबन्धके सम्पूर्ण आधा प्राप्त होनेतक संज्ञी पंचेन्द्रियके स्थिति सत्कमका घात क्यों नहीं कराया ? समाधान--नहीं, क्योंकि पूरी आधी स्थितिका घात करके जो एकेन्द्रिय द्वीन्द्रियादिकमें उत्पन्न होकर बढ़ा कर स्थिति बाँधता है उसके संख्यातगुणवृद्धि होती है। इसी प्रकार द्वीन्द्रियादिकके भी कहना चाहिये। २३६. अब संख्यातगुणवृद्धिका कथन करते हैं। जो इस प्रकार है-कोई एकेन्द्रिय पंचेन्द्रिय सत्कर्मका घात कर रहा है और ऐसा करते हुए उसने द्वीन्द्रियादिकमें उत्पन्न होकर जितना जघन्य स्थितिका बन्ध होता है उससे नीचे पूरी आधी स्थितिका घात किया पुनः उसने द्वीन्द्रिया Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001410
Book TitleKasaypahudam Part 04
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1956
Total Pages376
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size10 MB
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