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________________ गा० २२] वडिपरूवणाए कालो २५१ ४०१ कालागुगमेण दुविहो णिदेसो-ओघे० आदेसे ० । ओघेण छब्बीसं पयडीणमसंखे०भागवड्वि-असंखे० भागहाणि-अवढि० केवचिरं कालादो होति ? सव्वद्धा । कुदो ? एइंदियरासिस्स आणतियादो। दोवाड्डि-दोहाणि० अर्णताणु०चउक्क० असंखे०गुणहाणि-अवनव्वं च ज० एगसमओ, उक्क० आवलि. असंखे० भागो । सेसकम्माणमसंखे०गुणहाणि० ज० एगसमओ, उक० संखे० समया। सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताणमसंखे०भागहाणि सव्वद्धा। सेसपदवि० ज० एकस०, उक्क० आवलि. असंखे०भागो। एवं कायजोगि-ओरालि०-णस०-चत्तारिक०-अचक्खु०-भवसि०आहारित्ति। ४०२. आदेसेण णेरइएसु छब्बीसं पयडीणमसंखे०भागहाणि-अवढि० सम्मत्त. सम्मामिच्छत्ताणमसंखे०भागहाणि च सव्वद्धा। सेसपदवि० जह० एगसमओ, उक्क० ६४०१. कालानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघसे और आदेशसे । ओघकी अपेक्षा छब्बीस प्रकृतियोंकी असंख्यातभागवृद्धि, असंख्यातभागहानि और अवस्थितस्थितिविभक्तिका कितना काल है ? सब काल है. क्योंकि एकेन्द्रिय जीवराशि अनन्त है। दो वृद्धि, दो हानि और अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी असंख्यातगुणहानि और अवक्तव्यका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल आवलीके असंख्यातवें भागप्रमाण है। शेष कर्मोंकी असंख्यातगुणहानिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल संख्यात समय है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी असंख्यातभागहानिका काल सर्वदा है। तथा शेष पदविभक्तियोंका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल आवलीके असंख्यातवें भागप्रमाण है। इसी प्रकार काययोगी, औदारिककाययोगी, नपुंसक वेदवाले, क्रोधादि चारों कषायवाले, अचक्षुदर्शनवाले, भव्य और आहारक जीवोंके जानना चाहिए। विशेषार्थ-ओघसे छब्बीस प्रकृतियोंकी असंख्यातभागवृद्धि, असंख्यातभागहानि और अवस्थितपदका काल सर्वदा क्यों कहा है इसका स्पष्टीकरण स्वयं वीरसेनाचार्यने किया है। इनकी दो वृद्धि और दो हानि तथा अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी असंख्यातगुणहानि और अवक्तव्यका जघन्य काल एक समय है, क्यों एक समयके लिए ये होकर द्वितीय समयमें न हों यह सम्भव है। उत्कृष्ट काल आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण है, क्योंकि निरन्तर नाना जीव इन वृद्धियों और हानियोंको यदि प्राप्त हों तो इतने काल तक ही प्राप्त हो सकते हैं। शेष कर्मोकी असंख्यातगुणहानि क्षपणाके समय प्राप्त होती है, अतः इसका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल संख्यात समय कहा है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी सत्ता सदा है और उसकी सदा असंख्यातभागहानि होती रहती है इसलिए उसका काल सर्वदा कहा है। तथा इसके शेष पद कमसे कम एक समय तक और अधिकसे अधिक आवलीके असंख्यातवें भागप्रमाण काल तक होते हैं, अतः उनका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल आवलीके असंख्यातवें भागप्रमाण कहा है। काययोगी आदि मार्गणाओंमें यह काल बन जाता है। ६४०२. आदेशकी अपेक्षा नारकियों में छब्बीस प्रकृतियोंकी असंख्यातभागहनि और अवस्थितका काल तथा सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी असंख्यातभागहानिका काल सर्वदा है। तथा शेष पद विभक्तियोंका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल आवलीके असंख्यातवें Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001410
Book TitleKasaypahudam Part 04
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1956
Total Pages376
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size10 MB
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